सतयुग में एक राजा था। उनका नाम हरिश्चन्द्र था। हरिश्चन्द्र अत्यन्त धार्मिक भावना के व्यक्ति थे। उनकी प्रजा हर तरह से सुखी थी। उनके राज्य में एक ब्राह्यण के यहाँ पुत्र पैदा हुआ, तो उसे ब्राह्यण की मृत्यु हो गई। ब्राह्यण की पत्नी अपने पुत्र को पालती हुई गणेश चतुर्थी का व्रत ओर पूजन किया करती थी।
एक दिन जब उसका पुत्र कुछ बड़ा हो गया, तो घर के आसपास खेलने लगा। वहाँ एक कुम्हारा भी रहता था। किसी ने कुम्हार से कहा कि यदि तू किसी बालक की बलि अपने आवा में दे देगा, तो तेरा आवा सदा जलता रहेगा और बर्तन पकते रहेंगे। अतः कुम्हार ने जब ब्राह्यण के बालक को गणेश की मूर्ति से खेलता देखा, तो बालक को पकड़कर आवा में रख दिया और आग लगा दी। जब बालक की माँ ने बालक के बहुत देर हो जाने पर भी नही आया तो ब्राह्यणी बहुत दुखी हुई। वह उसकी जीवन-रक्षा के लिए गणेशजी से प्रार्थना करने लगी। गणेशजी की कृपा से उसके पुत्र का कुछ भी नही बिगड़ा। बस थोड़ा सा जल गयज्ञं
अपने अपराध-बोध के कारण कुम्हार राजा हरिश्चन्द्र के पास गया और अपने दुष्कर्म के लिए क्षमा प्रार्थना करने लगा। राजा ने ब्राह्यणी से पूछताछ की, तो उसने बताया कि गणेशजी की व्रत करने के कारण ही मेरे पुत्र बच गया है। उसने कुम्हार से कहा कि यदि तुम भी इस व्रत को करो, तो तुम्हारे भी सब दुःख दूर हो जायेंगे।