पौराणिक काल में सुमंत नामक ब्राह्मण था, उसकी एक पुत्री थी सुशीला। सुशीला बड़ी ही धार्मिक और संस्कारी कन्या थी, उसकी माँ बचपन में ही मर गयी। उसकी देखभाल के लिए सुमंत ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया। किन्तु उसका व्यवहार सुशीला के लिए बिलकुल भी अच्छा नहीं था। सुशीला के बड़े होने पर उसका विवाह कौण्डिन्य ऋषि के साथ कर दिया गया, और वह दोनों ही सुमंत के घर में रहने लगे। किन्तु कर्कशा को यह पसंद नहीं आया, उसने उन दोनों को ही ताने देना शुरू कर दिया। जिस से तंग होकर एक दिन दोनों उस घर को छोड़कर वन को निकल गए। ऋषि कौण्डिन्य अत्यंत निर्धन थे, इसलिए दोनों के पास रहने के लिए कोई स्थान नहीं था। वे दोनों अत्यंत दुखी रहने लगे, कभी कभी भिक्षा न मिलने के कारण उन्हें भूखे ही सोना पड़ता था।
एक दिन रात्रि में विश्राम करते हुए सुशीला ने कुछ स्त्रियों को पूजन करते हुए देखा। वह उनके पास गयी और पुछा कि वे किसका पूजन कर रही हैं। तब स्त्रियों ने बताया कि आज अनंत चतुर्दशी है, आज के दिन व्रत करके ये अनंत धागा हाथ में बांधा जाता है। यह अनंत धागा व्रती के जीवन से दुःख मिटा देता है और घर परिवार में खुशहाली ले आता है।
यह जान सुशीला अत्यंत प्रसन्न हुई, उसने भी हाथ में अनंत सूत्र बंधवाया और हर वर्ष अनंत चतुर्दशी का व्रत करने का संकल्प लिया। धीरे धीरे ऋषि कौण्डिन्य को काम मिलने लगा, जिससे उनकी आय होने लगी। उन्होंने वन में ही एक सुन्दर आश्रम बना लिया और दोनों प्रसन्नतापूर्वक वहां रहने लगे। ऐसे ही समय बीतता गया, एक दिन सुशीला अनंत भगवान की पूजा करके वापस लौट रही थी कि तभी कौण्डिन्य ऋषि ने उसके हाथ में वो डोरा देखा और पुछा की यह हाथ में क्यों बांधा है। तब सुशीला ने उन्हें सारी बात बताई और कहा यह व्रत करने से ही हमारे घर में खुशियां आई हैं। यह सुनकर ऋषि क्रोधित हो गए, उन्हें लगा उनकी म्हणत को भगवान का आशीर्वाद बताकर उनकी पत्नी ने उनका अपमान किया है। उन्होंने वह धागा खोल कर अग्नि में फ़ेंक दिया और कहा की भगवान ने कुछ नहीं किया जो किया मैंने किया है।
इस प्रकार उन्होंने श्री विष्णु का अपमान कर दिया, जिससे वे क्रोधित हो गए। धीरे धीरे ऋषि कौण्डिन्य की आर्थिक स्थिति फिर से खराब होने लगी, उनका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता था। इन सब के कारण वह फिर से दुखी रहने लगे। एक दिन उस उनके आश्रम में एक ऋषि पधारे, उन्होंने सुशीला से उसके दुःख का कारण पूछा तब सुशीला ने उन्हें सारी बात बता दी। ऋषि ने उन दोनों से कहा, की तुम्हारे कारण भगवान् विष्णु का अपमान हुआ है इसीलिए तुम्हारी यह दशा हुई है। तुम फिर से अनंत चतुर्दशी का व्रत करो और उन्हें प्रसन्न करो तभी तुम्हारे दुःख दूर होंगे।
दोनों ने फिर से अनंत चतुर्दशी के व्रत प्रारम्भ किये, ऋषि कौण्डिन्य अपने किये का पश्चाताप कर रहे थे। उनकी भक्ति से कुछ सालों में भगवान् विष्णु प्रसन्न हो गए। और उनके जीवन में फिर से खुशियां भर गयी।
यह कथा श्री कृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर को सुनाई, और उन सभी ने यह व्रत किया। जिसके फलस्वरूप उन्हें उनका राज पाठ वापस मिल गया।