नवरात्रि में देवी दुर्गा के नौ शक्तिशाली तथा पावन रूपों की पूजा की जाती है, जिसमे सबसे पहली पूजा होती है देवी शैलपुत्री की।अपने प्रथम स्वरूप में माता दुर्गा शैलपुत्री के नाम से जानी जाती हैं, इनका जन्म पर्वतराज हिमालय के घर उनकी पुत्री के रूप में हुआ था जिस कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा। प्रथम दिवस की देवी के दाहिने हाथ में त्रिशूल तथा बाएं हाथ में कमल शोभायमान होता है, इनका वाहन वृषभ है। नवरात्र के प्रथम दिन साधक अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं तथा माता शैलपुत्री की उपासना से मूलाधार चक्र जाग्रत होता है।
ऐसे करें शैलपुत्री का पूजन :-
प्रथम नवरात्रि 13 अप्रैल 2021 (मंगलवार) को है, इस दिन प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर शुद्ध जल से स्नान करें और फिर पूजा स्थल को गंगाजल छिड़क कर शुद्ध करें। इसके बाद सर्वप्रथम कलश स्थापना करें और प्रथमपूज्य गणपति पूजन करें। इसके बाद माँ शैलपुत्री की प्रतिमा या चित्र को स्नान करा कर फूलमाला चढ़ाएं, यदि माता शैलपुत्री का अलग से चित्र नहीं है तो माता पार्वती की अथवा माता दुर्गा की स्तुति करें। माँ शैलपुत्री की कुमकुम, रोली, अक्षत, पुष्प, इत्र आदि से विधिपूर्वक पूजा करें। शुद्ध घी का दीपक जलाएं और प्रसाद में हलवा-पूरी माता को चढ़ाएं। इसके बाद दुर्गा सप्तसती का पाठ भी करें और माँ का निम्न मन्त्र से 108 बार जाप करें।
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ओम् शं शैलपुत्री देव्यै: नम:।
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माता का उपासना मंत्र :-
'वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम।
वृषारुढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम॥'
स्रोत पाठ :-
प्रथम दुर्गा त्वंहि भवसागर: तारणीम्।
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥
त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरी त्वंहि महामोह: विनाशिन।
मुक्ति भुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥
मां शैलपुत्री से जुड़ी पौराणिक कथा :-
एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। इसमें उन्होंने सारे देवताओं को आमंत्रित किया, किन्तु शंकरजी को उन्होंने इस यज्ञ में नहीं बुलाया। सती ने जब सुना कि उनके पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहाँ जाने के लिए उनका मन विकल हो उठा।
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अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकर जी को बताई। शंकर जी ने कहा- प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया है, किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहाँ जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा।' शंकरजी के इस उपदेश से सती का प्रबोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने, वहाँ जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी। उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकर जी ने उन्हें वहाँ जाने की अनुमति दे दी।
सती ने पिता के घर पहुँचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है। केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में उपहास के भाव भरे हुए थे। उन्होंने यह भी देखा कि वहाँ शंकर जी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने उनके प्रति अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। उन्होंने सोचा भगवान शंकर की बात न मान, यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है।
वे अपने पति के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रुद्ध हो अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया।
सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। और वे 'शैलपुत्री' नाम से विख्यात हुर्ईं।
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