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अष्टचिरंजीवी:दीर्घायु बनाता है इन आठ चिरंजीवियों को स्मरण करना! (Ashta Chiranjeevi)

यह धरती मृत्युलोक भी कहलाती है क्योकि इस संसार में जो भी जन्म लेता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है। हम अक्सर कहानियों में भी सुनते हैं की ब्रह्मा जी किसी भी प्रकार का वरदान दे देते हैं किन्तु अमरता का नहीं, क्योकि अमरता पृथ्वी में संभव नहीं। किन्तु फिर भी इन तथ्यों के उलट कुछ पौराणिक पात्र ऐसे हैं जो चिरंजीवी अर्थात अमर हैं। और कुछ वर्षों से ही नहीं अपितु युगों से जीवित हैं। ​

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पौराणिक गाथाओं में ऐसे आठ अमर पात्र हैं जिन्हे मृत्यु नहीं आई, और ये आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं। इनकी संख्या आठ होने के कारण इन्हे ‘अष्टचिरंजीवी’ कहा जाता है, और घर में होने वाली पूजाओं में भी इन अष्टचिरंजीवियों का नाम लिया जाता। इनका स्मरण मनुष्य की आयु बढ़ाता है, तथा इन्ही की भांति पुरुषार्थ और भक्ति की शक्ति प्रदान करता है। आइये जानते हैं कि सनातन धर्मानुसार कौन हैं यह आठ चिरंजीवी -   ​

अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।

कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥

सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।

जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।

इस श्लोक का अर्थ यह है कि अश्वथामा, दैत्यराज बलि, वेद व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और मार्कण्डेय ऋषि इन आठ लोगों का स्मरण सुबह-सुबह करने से सारी बीमारियां समाप्त होती हैं और मनुष्य 100 वर्ष की आयु को प्राप्त करता है।

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1. हनुमान जी राम भक्त हनुमान का नाम अष्टचिरंजीवियों में सबसे पहले आता है। इन्हे कलियुग में सबसे जल्दी प्रसन्न होने वाला देवता कहा जाता है। हनुमान जी ने जब बाल्यावस्था में सूर्य को निगल लिया था तब इंद्र ने उन पर बज्र से प्रहार कर दिया था जिससे वे मरणासन्न हो गए। इस घटना से वायुदेव कुपित हो गए और उन्हें मनाने के लिए सभी देवताओं ने मिलकर हनुमान जी को बल, बुद्धि तथा चिरंजीवी होने का वरदान दिया था। कुछ कथाये ये भी बताती हैं की जब हनुमान जी राम जी का सन्देश लेकर सीता जी के पास अशोक वाटिका गए थे तब सीता जी ने प्रसन्न होकर उन्हें अजर अमर होने का वरदान दिया था, अजर अमर अर्थात जिसे न बुढ़ापा आये और न मृत्यु। इसलिए हनुमान जी आज भी युवा और अमर हैं।  ​

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2. अश्वथामा – सभी चिरंजीवियों में केवल अश्वथामा ही ऐसा पात्र है जिसे अमरता आशीर्वाद में नहीं अपितु श्राप में मिली थी। अश्वथामा शिवजी का ही अंश था, तथा गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र था। किन्तु उसने युद्ध समाप्त हो जाने के बाद पांडवों के सोये हुए पुत्रों को तथा अंत में अभिमन्यु तथा उत्तरा के अजन्मे पुत्र को मार दिया था, उसके इस घृणित कार्य के लिए श्री कृष्ण ने अश्वथामा को अमरता का श्राप दिया और उसे समय के अंत तक क्रोध, घृणा और कष्ट में भटकने के लिए छोड़ दिया। आज भी अश्वथामा को देखे जाने का दावा किया जाता है। इन सब बुराइयों के बावजूद अश्वथामा बहुत बड़ा शिव भक्त है, और इस श्राप से मुक्ति के लिए आज तक शिव की आराधना करता है। इसलिए इनका स्मरण भी अष्टचिरंजीवियों के साथ किया जाता है।​

3. विभीषण – विभीषण रामायण काल के प्रसिद्द राजा हैं , जो राक्षस राज रावण के अनुज थे। राक्षसों के वंश में रहते हुए भी उन्हें राम नाम की लगन थी। वे रावण को सदैव धर्म में चलने का परामर्श देते थे, किन्तु रावण ने उन्हें सिवाय अपमान के कुछ नहीं दिया। युद्ध के समय विभीषण श्री राम के पक्ष में आ गए और उन्होंने लंका तथा रावण से जुड़ी कई गुप्त बातें श्री राम को बताई जिससे उन्हें लंका जीतने में सहायता प्राप्त हुई। इन्हे भी चिरंजीवता का आशीर्वाद प्राप्त है क्योकि इन्होने सही और सत्य का मार्ग चुना था।​

4. परशुराम –  भगवान् विष्णु के छठे अवतार परशुराम जी का जन्म अक्षय तृतीया के दिन हुआ था। उनके पिता ऋषि जमदग्नि और माता रेणुका थीं। इनका जन्म सतयुग और त्रेता युग के संधिकाल में हुआ माना जाता है। परशुराम ने कुल 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन किया था, अर्थात सभी पापी और निरंकुश क्षत्रियों का वध किया था। इन्होने शिवजी का कड़ा तप करके उनका वरदान प्राप्त किया था और उनसे इन्हे एक फरसा(परसु) प्राप्त हुआ था, इसलिए इनका नाम राम से परशुराम पड़ गया। इनका उल्लेख सतयुग में सीता स्वयंवर तथा महाभारत के द्वापर युग में भी मिलता है।   ​

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5. ऋषि व्यास –  महर्षि वेद व्यास भी अष्ट चिरंजिवियन में शामिल हैं। ये महर्षि पराशर और माता सत्यवती के पुत्र हैं। इन्होने चार वेद- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्व वेद का अनुवाद किया था इसलिए इनके नाम के साथ वेद जुड़ गया। साथ ही इन्होने अट्ठारह पुराणों की भी रचना की थी।  महाभारत और श्रीमद्भागवत गीता की रचना भी इन्होने ही की थी। इनका रंग सांवला होने के कारण इन्हे कृष्णद्वैपायन भी कहा जाता है। इनकी कृपा से ही हस्तिनापुर को पाण्डु, धृतराष्ट्र और विदुर की प्राप्ति हुई।​

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6. राजा बलि – बलि दैत्यों का राजा था, उसका नाम महान योद्धाओं, विष्णु भक्तों तथा दानवीरों में लिया जाता है। राजा बलि ने अपनी शक्ति से तीनों लोकों स्वर्ग, पाताल तथा धरती पर अपना अधिकार कर लिया था। उसे परास्त करना किसी भी देव के वश में नहीं था, इसलिए विष्णु भगवान ने खुद वामन अवतार धर के बलि के साथ छल किया। इन सब के बाद वह एक अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन कर रहा था, जिसे पूर्ण करने के लिए अंत में उसे दान देना था। तभी वहां दान लेने श्री विष्णु पहुंच गए, उन्हें देख दैत्यगुरु शुक्राचार्य समझ गए थे और उन्होंने बलि को सावधान भी किया किन्तु बलि दान देने के संकल्प से पीछे नहीं हटे। और वामन अवतार विष्णु जी ने दान में तीन पग भूमि मांग ली, और बलि ने तीन पग भूमि देने का वचन दे दिया। तब वामन अवतारी विष्णु ने अपना विशाल रूप धारण किया और प्रथम पग में समस्त धरती और आकाश नाप लिया, दूसरे पग में स्वर्ग अब तीसरा पग रखने के लिए कोई जगह शेष नहीं रही, तो अंत में बलि ने अपना शीश झुका कर अपने आप को दान कर दिया। तब उसकी दानवीरता से प्रसन्न होकर विष्णु जी ने उसे चिरकाल तक पाताल लोक का राजा बनने का वरदान दे दिया।​

7. कृपाचार्य –  कृपाचार्य महर्षि गौतम के पौत्र तथा महर्षि शरद्वान के पुत्र थे। शरद्वान जब पैदा हुए तब बाणों के साथ ही पैदा हुए थे और वे बहुत निपुण धनुर्धर हुए। उन्ही की भांति उनका पुत्र कृप भी तेजस्वी धनुर्धर बना। शरद्वान के वीर्य से दो संतान उत्पन्न हुईं, एक पुत्र और एक पुत्री। महाराज शांतनु ने दोनों ही शिशुओं को जंगल में रोते हुए देखा तो अपने साथ हस्तिनापुर लेकर चले गए। इनका नाम कृप तथा कृपी रखा गया। कृपी का विवाह द्रोणाचार्य के साथ हुआ और अपने ज्ञान के कारण कृप हस्तिनापुर के कुलगुरु बन गए। इन्होने महाभारत युद्ध में कौरवों के पक्ष से युद्ध किया था और युद्ध समाप्ति के बाद पांडवों के साथ आ गए। इन्होने ही परीक्षित को अस्त्र-शस्त्र विद्या का ज्ञान दिया था।​

8. ऋषि मार्कण्डेय – ऋषि मार्कण्डेय का जन्म अल्पायु के भाग्य के साथ हुआ था। ये शिवजी के परम भक्त थे तथा सदैव इनकी भक्ति में लीन रहा करते थे। जब इनकी आयु हो गयी तब यमदूत इन्हे ले जाने आ गए किन्तु उस समय ये शिव की आराधना कर रहे थे। इसलिए शिवजी के प्रभाव से यमदूत उन्हें ले जाने में सफल नहीं हो पाए। तब यमराज स्वयं उन्हें ले जाने आये, यमराज को सामने देख मार्कण्डेय भयभीत हो गए और शिवलिंग से लिपट गए। यमराज ने उनके गले में यमफांश डाला, यह देखते ही क्रोधित शिव वहां प्रकट हुए और यमराज को ज़ोरदार लात मारी। इस से याम भयभीत हो गए और क्षमा मांगते हुए मार्कण्डेय को चिरंजीवी होने का वरदान दे दिया।  ​

 

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