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शिव और सती की आलौकिक प्रेम कथा ! (Story of Shiva and Sati)

ब्रह्मा के पुत्र प्रजापति दक्ष की कई पुत्रियां थी, परन्तु उन्हें संतोष नहीं था।  वे एक शक्ति- संपन्न, देवी स्वरूपा पुत्री की इच्छा रखते थे। और ऐसी पुत्री की कामना में उन्होंने माता आद्या की कड़ी तपस्या की।  उनकी तपस्या से प्रसन्न हो कर माता ने उन्हें दर्शन दिया, और उनको वरदान दिया की वे स्वयं उनकी पुत्री के रूप में जन्म लेंगी।

देवी आद्या ने लिया सती के रूप में जन्म :-

समय आने पर सती के रूप में माता भगवती ने दक्ष के घर जनम लिया। और जैसा कि दक्ष की इच्छा थी उससे कहीं अधिक उनकी यह पुत्री सभी कन्याओं में सर्वाधिक शक्तिशाली और अलौकिक थी। और जब सती विवाह योग्य हो गयी. तब राजा दक्ष को उनके योग्य वर की चिंता सताने लगी। उन्होंने ब्रह्मा जी से परामर्श उचित समझा। ब्रह्मा जी ने कहा, सती देवी आद्या का अवतार है और उसके योग्य केवल एक ही वर है इस सम्पूर्ण संसार में। और वो हैं शिव, क्योकि यदि सती आरम्भ है तो वे अंत हैं, सती शक्ति का पुंज है तो वे शक्तिपुंज के धारक हैं। ब्रह्मा जी की बात मान कर दक्ष ने शिव जी से सती का विवाह कर दिया और सती भी कैलाश में रहने लगीं।​

दक्ष हुए शिव से रुष्ट :-

एक बार एक देव सभा का आयोजन किया गया था, जिसमे सभी देवताओं ने भाग लिया। सभा में शिव जी भी आये थे। सभा मंडल में सबसे अंत में दक्ष का आगमन हुआ। उनके आते ही सारे देव उनके सम्मान में हाथ जोड़कर खड़े हो गए। किन्तु शिव जी बैठे रहे, क्योकि उन्हें औपचारिकता करने का कोई मोह नहीं था। जब दक्ष ने शिवजी को बैठे देखा तो उन्हें अपना अपमान अनुभव हुआ। उनके भीतर क्रोध की ज्वाला लग गयी और वे शिवजी को अपमानित करने का अवसर देखने लगे।  ​

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यज्ञ का आयोजन :-

एक बार माता सती कैलाश में बैठीं थीं, तभी उन्होंने देखा की उस दिन अनेक देवता अपनी पत्नियों के साथ किसी स्थान के लिए गमन कर रहे हैं। उन्होंने कौतुहल वश शिव से पूछा की आज सभी देव गण कहाँ जा रहे हैं? भगवान शंकर ने उत्तर दिया कि सभी देवी देवता आपके पिता द्वारा आयोजित महायज्ञ में सम्मिलित होने जा रहे हैं। यह सुनकर सती सोच में पड़ गयीं कि उनके पिता ने उन्हें क्यों आमंत्रित नहीं किया। फिर उन्हें लगा की शायद उनके पिता उन्हें निमंत्रण देना भूल गए। इसलिए उन्होंने शिवजी को बोला की उन्हें यज्ञ में जाना चाहिए, किन्तु शिव ने बिना निमंत्रण जाने से मना कर दिया। किन्तु माता सती अपने आप को रोक न पाई, अपनी बहनों और माता से भेंट करने की इच्छा से वह यज्ञ में जाने का हठ करने लगी। शिव उनके हठ के आगे हार गए और उन्हें जाने की अनुमति दे दी और साथ में अपने गणों को भी उनकी रक्षा हेतु भेज दिया।  ​

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हुआ शिव का तिरस्कार :-

सती अपने पिता के घर पहुंचीं तो देखा वहाँ पर उनकी सभी बहिने उपस्थित हैं, पर किसी ने उनसे बात नहीं की। केवल उनकी माँ ने ही उनका स्वागत किया। दुखी मन से वह यज्ञ बेदी के पास गयीं और उन्होंने देखा कि वहां पर सभी देवों के भाग रखे हैं किन्तु भगवान शिव का भाग नहीं है। वह अपने पिता के पास गयीं और उनसे पूछा की पिताश्री यज्ञ में कैलाशपति का भाग नहीं दिख रहा जबकि बाकि सभी देवताओं के भाग उपस्थित हैं। यह सुनकर उनके पिता क्रोध और अहंकार से बोले यहां उसका भाग क्यों होगा, यह यज्ञ देवताओं के लिए आयोजित किया गया है। वह नग्न रहने वाला दरिद्र और भूतों का स्वामी है। वह देवताओं के साथ बैठने योग्य ही नहीं है। ​

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माता सती हुईं क्रोधित :-

अपने पति के विषय में ऐसी बातें सुनकर माता सती क्रोध और पश्चाताप की अग्नि में जल उठीं। उनका ह्रदय ज्वाला की तरह भभकने लगा, उनकी आँखे क्रोध से लाल हो गयीं। उन्होंने क्रोध और पीड़ा से कंपकपाते होठों से कहा, "मंगल कर्ता शिव के प्रति ऐसी बातें बोलकर आपने बहुत बड़ा पाप किया है। आपने उनका अपमान किया है जो सम्पूर्ण सृष्टि का विनाश करने की क्षमता रखते हैं। मई अपने पति का अपमान सुनकर जीवित नहीं रह सकती और न ही कोई ऐसा यज्ञ पूर्ण होने दे सकती हूँ जिसमे उनका भाग न हो।" यह कहकर सती यञकुंड में कूद गयीं।  ​

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वीरभद्र ने किया यज्ञ का विध्वंस :-

जलते हुए अग्निकुंड में सती का शरीर जलने लगा। ऐसा भयानक दृश्य देखकर सभी देवता भयभीत हो गए। सती के साथ गए गण भी क्रोध से भर गए और यज्ञ का विनाश करने लगे। सभी देवता और ऋषि मुनि प्राण बचा कर भागने लगे। सभी शिव के क्रोध का विचार कर कांपने लगे। शिव ने अपनी अंतर्दृष्टि से सब कुछ देख लिया और वे क्रोध से तांडव करने लगे। उन्होंने तांडव करते हुए अपनी जटाएं शिला में ज़ोर से मारी और इससे वीरभद्र की उत्पत्ति हुई। वीभद्र ने यञमंडप पर जाकर दक्ष का गला काट दिया और सम्पूर्ण यज्ञ का विध्वंश कर दिया। इसके बाद शंकर वहां पहुंचे और सती के जले हुए शरीर को देखकर वे सब कुछ भूल गए। उन्होंने सती के शरीर को अग्नि से निकाला और अपने कंधे पर रखकर विलाप करने लगे। वह यहां से वहां भटकने लगे, उनके दुःख की कोई सीमा न थी। सभी यह देखकर आश्चर्य में पड़ गए, जिसे कामदेव नहीं जीत पाए और जो किसी भी परिस्थिति में स्थिर रहते थे वे शिव शंकर आज सती के लिए इतने व्याकुल हो रहे हैं। जो सारी सृष्टि को अपनी दृष्टि से भस्म करने की क्षमता रखते हैं वे आज सती के प्रेम में सब कुछ भूल गए थे।

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विष्णु ने काटे माता सती के अंग :-

भगवान शिव के रुदन से पृथ्वी ठहर गयी, सारे देवता स्थिर होकर शिव को देखने लगे। किसी को हिम्मत नहीं थी की वे शिव के सामने जा सकें। ऐसे समय में सृष्टि के पालक विष्णु आगे आये और उन्होंने अपने चक्र से सती के एक एक अंग को काटना शुरू कर दिया। इस प्रकार सती के अंग एक एक कर भूमि में गिरते गए। और जब अंत में सती के सारे अंग गिर गए तब भगवान शिव शांत हुए और स्थिर हो गए। पृथ्वी भी सुचारु रूप से चलने लगी।

शिव के शान्त होते ही सभी देवता उनकी स्तुति करने लगे और उनसे दक्ष को जीवित करने की प्रार्थना करने लगे। चूँकि दक्ष का सर यज्ञ में गिरने के कारण वह जल चूका था, तब शिव दक्ष के शीष के स्थान पर एक बकरे का शीष लगाकर दक्ष को जीवित कर दिया। 

भूमि पर जहाँ जहाँ सती के अंग कट कर गिरे थे, वहां वहां शक्ति पीठ का निर्माण हो गया। देवी भागवत में 108 शक्तिपीठों के होने का वर्णन है, जो कि उनके अंग और आभूषण गिरने से बने थे। वर्तमान में 51 शक्तिपीठ ही मिल पाए हैं, जिनकी संसार में लोग पूजा करते हैं।

 

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