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बलशाली होते हुए भी बलराम ने क्यों नहीं लड़ा महाभारत का युद्ध? (Why Didn't Balram Participate in the Mahabharata)

श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम जी शेषनाग के अवतार थे। कंस द्वारा देवकी की छः संतानों के वध के बाद शेषनाग जी बलराम के रूप में देवकी की कोख में आये। उनके जन्म से कुछ समय पहले वासुदेव की पहली पत्नी रोहिणी देवकी तथा वासुदेव से मिलने कारागार गयी तथा वहीं अपनी योग शक्ति से देवकी के गर्भ से बलराम को अपनी गर्भ में सुरक्षित कर लिया। क्योकि बलराम का एक गर्भ से दूसरी गर्भ में आकर्षण हुआ था, इसलिए उन्हें संकर्षण भी कहते हैं।​

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बलराम जी के विषय में कौन नहीं जानता, ये बल के धाम थे और साथ ही क्रोध के भी। जहाँ कृष्ण अपनी मुस्कान और शील स्वाभाव के लिए प्रसिद्द हैं वहीं बलराम को उनके क्रोध के लिए जाना जाता है। वैसे भी वे नाग वंश के थे और नाग वंशी क्रोधी स्वभाव के लिए जाने जाते हैं। यदुवंश के संहार के बाद इन्होने समुद्र तट पर अपनी देह त्याग दी और अपने धाम लौट गए। बलराम की शक्ति जानते हुए जरासंध को बलराम ही अपने लायक प्रतिद्वंदी दिखाई देते थे अन्य कोई नहीं। यदि कृष्ण जी की योजना भीम द्वारा जरासंध के वध की न होती तो बलराम ही जरासंध का वध कर चुके होते।

किन्तु इतने बलशाली होने पर भी उन्होंने महाभारत के युद्ध में न लड़ने का फैसला क्यों किया? क्या कारण था की वे युद्ध करने के स्थान पर तीर्थ यात्रा पर चले गए? आइये जानते हैं इस लेख में –

बलराम नहीं हुए सम्मिलित :-

महाभारत के युद्ध में सभी छोटे बड़े राज्यों से सैकड़ों राजाओं ने भाग लिया था। जहाँ एक तरफ कौरवों के साथ कृष्ण की नारायणी सेना सहित 11 अश्वरोहिणी सेना थी। वहीं पांडवों के पास केवल 8 अश्वरोहिणी सेना थी। किन्तु ऐसे में भी जब कृष्ण निःशस्त्र पांडवों के साथ थे, बलराम ने युद्ध न करने का प्रण लिया और तीर्थ यात्रा पर निकल गए।​

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और तो और उन्होंने कृष्ण को भी यही सुझाव दिया कि युद्ध में हिस्सा न ले क्योकि दोनों ही पक्ष हमारे सम्बन्धी हैं, और किसी एक का पक्ष लेना दूसरे के साथ अन्याय करना है। दोनों ही पक्ष अधर्म कर रहे हैं और इसमें यदि हम सम्मिलित हुए तो वह भी अधर्म होगा।​

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दुर्योधन ने किया सेना का चयन :-

चूँकि बलराम भैया दुर्योधन को वचन दे चुके थे की वे और कृष्ण युद्ध में शस्त्र नहीं उठायंगे इसलिए कृष्ण जी ने भी उनके वचन का मान रखते हुए युद्ध में बिना शस्त्र के भाग लिया और अर्जुन के सारथि बन गए। उन्होंने भ्राता बलराम को भी समझा दिया कि धर्म स्थापित करने के लिए युद्ध का होना आवश्यक है। और रही संबंधों की बात तो एक पक्ष सेना और एक पक्ष मुझे चुन ले।

जब दुर्योधन को पता चला कृष्ण निःशस्त्र युद्ध भूमि में होने और दूसरी तरफ उनकी ताकतवर नारायणी सेना होगी तो उसने सेना का ही चुनाव किया। किन्तु श्री कृष्ण ने निहत्थे ही पांडव सेना को विजय दिलाई। इस प्रकार उन्होंने बलराम के वचन का मान भी रखा और यह युद्ध भी पूर्ण किया क्योकि जब प्रश्न धर्म का हो कृष्ण जी स्पष्ट रूप से धर्म के साथ खड़े हो जाते थे, चाहे विपक्ष में उनके अपने क्यों न हों।

बलराम पहुंचे पांडवों की छावनी :-

महाभारत के ग्रन्थ में एक घटना का वर्णन मिलता है जिसमे युद्ध से पूर्व एक दिन दाऊ भैया पांडवों की छावनी में पहुंचे। उन्हें देख पांडव पक्ष में सभी लोग प्रसन्न हो गए। सबने उनका अभिवादन किया, सबका अभिवादन स्वीकार कर के बलराम धर्मराज युधिष्ठिर के पास बैठे। सबको आशा थी की उन्होंने अपना निर्णय बदल लिया होगा।​

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किन्तु बलराम में बड़े दुखी और व्यथित मन से कहा कि इस युद्ध में मुझे कोई रूचि नहीं है। सभी लोग आपस में लड़ कर मूर्खता कर रहे हैं। मेरे लिए पांडव भी उतने ही प्रिय हैं जितने की कौरव। इसलिए मैं इस युद्ध में भाग नहीं लूंगा।  ​

बलराम निकले तीर्थ यात्रा पर :-

बलराम ने कहा अब जिस तरफ कृष्ण हो, उसके विपक्ष में मैं कैसे जाऊं? भीम और दुर्योधन दोनों ने ही मुझसे गदा सीखी है। दोनों ही मेरे शिष्य हैं। दोनों पर मेरा एक जैसा स्नेह है। इन दोनों कुरुवंशियों को आपस में लड़ते देखकर मुझे अच्छा नहीं लगता अतः मैं तीर्थयात्रा पर जा रहा हूं।​

यह कहकर बलराम ने सब से विदा ली और तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े। वे युद्ध के अंतिम दिन कुरुक्षेत्र पहुंच गए थे, तथा दुर्योधन और भीम का गदा युद्ध भी देखा। जिसमे कृष्ण ने भीम को इशारे से बता दिया कि दुर्योधन की जंघा पर वार करे। भीम ने ऐसा ही किया और दुर्योधन की मृत्यु हो गयी। कृष्ण की इस बात से बलराम अत्यंत क्रोधित भी हुए थे। किन्तु कृष्णा ने उन्हें अपने तर्क वितर्क से शांत कर दिया।

 

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