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कैसे एक नन्हा बालक बना 'जगतगुरु शंकराचार्य'?

भारत के इतिहास में ऐसे कई महान दिग्गज रहे हैं जिनको किसी भी परिचय की आवश्यकता नहीं है ऐसे लोगों का जिक्र ही उनका परिचय होता है, ऐसे ही एक व्यक्ति थे शंकराचार्य जो एक सन्यासी थे, 09 मई 2019 (गुरूवार) को आदि शंकराचार्य जी की 1231 वीं जयंती मनाई जायेगी, आइये जानें उनके जीवन के बारे में कुछ रोचक तथ्य-​

सन्यासी बालकः-​

किसी गाँव में एक सन्यासी था जो इधर उधर भटकता हुआ एक ब्राह्मण के घर भिक्षा मांगने पहुँचा, उस समय उसकी आयु मात्र 7 वर्ष थी, उसने ब्राह्मण के घर के बाहर पहुँचकर भिक्षा मांगी परन्तु वह ब्राह्मण ऐसा निर्धन था कि उसके घर पर कुछ भी खाने को नहीं था तो वह किसी को क्या भिक्षा देता, ब्राह्मण की पत्नी बाहर आई और उस बालक के हाथ में एक आंवला रखते हुए अपनी निर्धनता का वर्णन करने लगी।
निर्धन महिला को ऐसे रोता हुआ देखकर उस बालक का मन विचलित हो उठा, उस बालक ने माँ लक्ष्मी से प्रार्थना की कि वे उस ब्राह्ममण की सारी विपदाएं दूर कर दें, बालक की प्रार्थना सुनकर महालक्ष्मी ने उस निर्धन ब्राह्ममण के घर सोने के आंवले की वर्षा कर दी।​

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देवी महालक्ष्मी को प्रसन्न करके उस निर्धन परिवार की निर्धनता दूर करने वाले बालक का नाम ’शंकर’ था, उस बालक ने दक्षिण भारत के कालाड़ी ग्राम के एक ब्राह्ममण परिवार में जन्म लिया था, अपने इन्ही कार्यों के कारण वह बालक आगे चलकर "जगतगुरू शंकराचार्य" के नाम से प्रसिद्ध हुए।​

ब्राह्ममण परिवार में हुआ जन्मः-​

जगतगुरू शंकराचार्य जी का जन्म शिवगुरू नामपुद्रि के यहाँ उनके विवाह के कई वर्षों पश्चात हुआ था, विशिष्टादेवी ने एक अति सुंदर बालक को जन्म दिया उस बच्चे का नाम शंकर रखा गया परन्तु यह बच्चा कोई साधारण बच्चा नहीं था उसके कार्यों के कारण बाद में चलकर उसके नाम के साथ शंकराचार्य जुड़ गया और वह बालक शंकराचार्य बन गया, शंकराचार्य जी जब बहुत छोटे थे तब ही उनके पिता का देहांत हो गया था, वह अपनी माँ के साथ रहते थे, कहा जाता है कि केवल 2 वर्ष की आयु में ही बालक शंकराचार्य ने वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ कंठस्थ कर लिये थे।​

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सन्यास की कामनाः-​

जगतगुरू शंकराचार्य जी बहुत ही छोटी उम्र में ही सन्यास लेने का मन बना चुके थे परन्तु अकेली माता को छोड़कर वह जा नहीं पा रहे थे, एक दिन उन्होंने प्रण लिया कि वह सन्यास लेने के लिये ज़रूर जायेंगे, उनकी माता ने जब उनको रोकने की कोशिश की तो उन्होंने अपनी माता को नारद मुनि से जुड़ी एक कथा सुनाई-
कथानुसार जब नारद जी की आयु केवल 5 वर्ष थी तब वह अपने स्वामी की अतिथिशाला में हरिकथा सुनकर साक्षात हरि से मिलने को व्याकुल हो उठे, परन्तु अपनी माता के स्नेह के कारण घर छोड़ने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। एक रात को सर्पदंश के कारण उनकी माता की तत्काल मृत्यु हो गई, उसे भगवान की कृपा मानकर नारद ने घर छोड़ दिया, उसके बाद ही नारद जी अपने जीवन के पड़ाव पर पहुँच पाये थे।​

कथा समाप्त करते हुए शंकर ने अपनी माता से कहा- माँ जब नारदजी ने अपने घर का त्याग किया था तब वह केवल 5 वर्ष के थे, हे माता मैं तो 8 वर्ष का हूँ और मेरे ऊपर तो मातृछाया सदा के लिये रहेगी, शंकर की बात सुनकर उसकी माता बहुत दुखी हुई, बालक शंकर बोला- माँ तुम इतना दुखी क्यों होती हो, मेरे सिर पर सदैव आपका आर्शिवाद है तुम चिंतित न हो तुम्हारे जीवन के अंतिम पड़ाव पर मैं उपस्थित रहूंगा और तुम्हें अग्नि देने के लिये मैं ज़रूर आऊंगा।​

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माता को दी अंतिम विदाईः-​

यह कहते हुए बालक शंकर ने अपने घर परिवार का त्याग कर दिया और सन्यासी जीवन जीने के लिये आगे बढ़ गये, कुछ वर्षों के उपरान्त अपनी माता की मृत्यु के समय वह उपस्थित हुए और उनके मृत शरीर को अग्नि देनी चाही परन्तु कुछ परम्परागत सिद्धांतों के चलते ब्राह्ममणों ने ऐसा करने से उन्हें रोक लिया।​

ब्राह्ममणों का शंकराचार्य को रोकने से केवल यही तर्क था कि सन्यासी सभी बंधनों से मुक्त होता है फिर अपनी माता के स्नेह से भी उसे मुक्त रहना चाहिये, उनका सन्यासी जीवन ऐसा करने से श्रापित हो जायेगा, शंकराचार्य ने उन्हें अपनी उस प्रतिज्ञा के विषय में बताया जो सन्यासी जीवन में आने से पहले उनके द्वारा ली गई थी, उन्होंने कहा कि वह माता के मोह में नहीं बल्कि अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने के लिये आये हैं इसीलिये वे कोई भी अधर्म नहीं कर रहे हैं, तत्पश्चात् सभी ब्राह्ममणों ने उन्हें उनकी माता के शरीर को अग्नि देने की अनुमति दे दी।​

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सोलह दिन तक चला शास्त्रार्थः-​

शंकराचार्य जी के जीवन से जुड़ी भारत भ्रमण की कथा हमारे इतिहास में प्रचलित है, आठवीं शताब्दी में जब आदि शंकराचार्य जी सांस्कृतिक दिग्विजय के लिये भारत का भ्रमण करने निकले थे उसी दौरान वह एक बार मिथिला प्रदेश से भी निकले थे, वहाँ पर वह मंडन मिश्र से मिले थे, उनसे मिलने के बाद दोनों के बीच में करीब सोलह दिन तक लगातार शास्त्रार्थ चला, शास्त्रार्थ में निर्णायक मंडन मिश्र की पत्नी भारती को बनाया गया था, निर्णय का समय करीब आया तब देवी भारती को कुछ आवश्यक काम से बाहर जाना पड़ा, जाते समय देवी भारती ने दोनों विद्वानों को एक एक फूल की माला पहनने के लिये दी और कहा कि मेरे जाने के बाद यह मालाएं ही आपकी हार और जीत का फैसला करेंगी, कुछ समय के बाद जब भारती जी लौटी तो उन्होंने अपना निर्णय सुनाते हुए शंकराचार्य जी को विजयी घोषित किया।​

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फूलों के हार से हुआ निर्णयः-​

सभी देवी भारती के इस निर्णय को सुनकर आश्चर्यचकित रह गये और पूछने लगे कि अपनी अनुपस्थिति में बिना किसी पहलू को देखे उन्होंने किसी के भी हित में निर्णय कैसे ले लिया, इन प्रश्नों का स्पष्ट उत्तर देते हुए देवी भारती ने कहा, अगर किसी व्यक्ति को चिंता होती है या क्रोध आता है तो वह उसे रोक नहीं पाता, जब मैं आई तो मैंने दोनों की ओर देखा जिनमें से मेरे पति के गले में डली हुई माला उसके क्रोध से सूख गई थी, दूसरी ओर शंकराचार्य जी के गले की माला के फूल अभी भी पहले की भांति दिखाई दे रहे थे, इससे यही स्पष्ट होता है कि शंकराचार्य जी की ही विजय हुई और मेरा निर्णय उनके प्रति गलत नहीं था, इस कथन से सभी दंग रह गये और सबने देवी भारती की प्रशंसा की।

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