परमा एकादशी व्रत मुहूर्त :-
एकादशी तिथि आरम्भ: रात्रि 12:58 (9 जून 2018)
एकादशी तिथि समाप्त: रात्रि 11:54 (10 जून 2018)
पारण समय: प्रातः 05:44 से 08:25 (11 जून 2018)
परमा एकादशी व्रत का महत्व :-
अधिक मास में कृष्ण पक्ष में जो एकादशी आती है उसे परमा एकादशी के नाम से जाना जाता है, इस वर्ष यह 10 जून को होगी। वैसे तो वर्षभर में आने वाली सभी 24 एकादशियों (मलमास में 26 एकादशी) का बहुत महत्व है, किन्तु अधिकमास में आने वाली एकादशी का महत्व उन सब से अधिक है। इस व्रत को निष्ठां से विधिपूर्वक करने वाले व्रती को दरिद्रता से छुटकारा मिलता है, तथा अंत में स्वर्ग में स्थान मिलता है। यह व्रत पूर्व जन्मों के कर्मफलों को शुद्ध करने वाला है। पूर्वजन्म में किये गए पाप आदि से मुक्ति प्रदान कर सुख देने वाला है परमा एकादशी का व्रत।
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परमा एकादशी व्रत की विधि :-
इस व्रत में व्रती को भगवान विष्णु का ध्यान कर के एक दिन पूर्व ही व्रत के नियमों का पालन करना शुरू कर देना चाहिए , जैसे- प्याज, लहसुन, मांस तथा मदिरा जैसे उत्तेजित करने वाले और गरिष्ट भोजन से दूर रहना चाहिए। व्रती को ब्रह्मचर्य का पालन भी करना चाहिए। व्रती को एकादशी के दिन प्रातः सूर्योदय से पहले उठना चाहिए और फिर नित्यकर्म से निपट कर स्नान आदि करना चाहिए। स्नान के लिए मिट्टी, बेसन, तिल आदि का इस्तेमाल करना चाहिए। स्नान यदि किसी नदी में किया जाये तो शुभ होता है। इसके पश्चात् मंदिर में घी का दीपक जला कर फल, फूल, तिल, चन्दन और धूप आदि जलाकर विष्णु की पूजा करनी चाहिए। इसके पश्चात् विष्णु सहस्त्रनाम तथा विष्णु स्त्रोत का पाठ करना चाहिए अथवा किसी पंडित से करवाना चाहिए। व्रती को दिन भर किसी की निंदा, झूठ आदि दुष्कर्मों से बचना चाहिए। तथा यथाशक्ति दान आदि करना चाहिए। फिर किसी ब्राह्मण को भोजन कराने के बाद दक्षिणा दे कर व्रत खोलना चाहिए।
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व्रत कथा :-
धर्मराज युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण से पुछा कि- हे जनार्दन! अधिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या महत्व है तथा उसकी विधि क्या है? कृपा करके मुझे बताइए।
श्री कृष्ण बोले हे राजन्- अधिक मास के कृष्ण पक्ष में जो एकादशी आती है वह परमा, पुरुषोत्तमी अथवा कमला एकादशी कहलाती है। अधिक मास में दो एकादशी होती हैं जो पद्मिनी तथा परमा नाम से जानी जाती हैं।
अब इसका महत्व जान लो- एक समय काम्पिल्य नगरी में सुमेधा नामक एक गरीब ब्राह्मण अपनी पत्नी के साथ निवास करता था, ब्राह्मण बहुत धर्मात्मा था और उसकी पत्नी अत्यंत पतिव्रता स्त्री थी। दोनों ही अतिथियों की खूब सेवा किया करते थे, तथा दूसरों को भोजन करा स्वयं भूखे रह जाते थे। एक दिन ब्राह्मण ने अपनी पत्नी से कहा कि इतने कम धन में हमारा परिवार सुखी नहीं रह पाएगा अतः मुझे परदेस जाकर कोई कार्य करना चाहिए, जिससे मैं अधिक धन इकठ्ठा कर सकू। किन्तु उसकी पत्नी बोली की स्वामी मनुष्य अपने पिछले जन्म के कर्मों के अनुसार ही निर्धनता अथवा धन प्राप्त करता है। इसलिए परदेस जाकर नहीं यही रहकर कर्म कीजिये, भगवान की जो इच्छा होगी हमे वही प्राप्त होगा। पत्नी की बात ब्राह्मण को जँच गयी, उसने परदेस जाने का विचार मन से निकल दिया तथा वही रहकर कर्म करने लगा।
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एक दिन संयोग से ऋषि कौण्डिल्य वहां से गुजरे और भोजन के लिए ब्राह्मण के घर पधारे। उन्हें देख दोनों ही पति पत्नी अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने ऋषि की खूब आवभगत की। ऋषि भी उनके सेवा भाव से अत्यंत प्रभावित हुए, उन्होंने ब्राह्मणी से कहा की वे उनसे प्रसन्न है अतः वे जो चाहे मांग ले। ब्राह्मणी ने हाथ जोड़कर कहा, की यदि आप प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे दरिद्रता मिटाने का कोई उपाय बताएं। जिससे हम दोनों के द्वार से कोई भी अतिथि भूखा न जाये। तब ऋषि कौण्डिल्य ने उसे मलमास के कृष्ण पक्ष में आने वाली पुरुषोत्तम एकादशी के विषय में बताया। और कहा इस एकादशी का व्रत करने से धन के मार्ग खुलते हैं, व्रती को इस दिन स्नान करके भगवान् विष्णु के समक्ष बैठकर हाथ में जल एवं फूल लेकर संकल्प करना चाहिए। इसके बाद पूजा आदि करके ब्राह्मण को भोजन करवा कर दान दक्षिणा देनी चाहिए तथा इसके पश्चात् स्वयं भी भोजन करना चाहिए।
उन्होंने कहा तुम दोनों ही इस एकादशी का व्रत रखो। यह एकादशी धन-वैभव देती है तथा पापों का नाश कर स्वर्ग प्रदान करने वाली होती है। धनाधिपति कुबेर ने भी इस एकादशी व्रत का पालन किया था जिससे प्रसन्न होकर भगवान भोलेनाथ ने उन्हें धनाध्यक्ष का पद प्रदान किया।
ऋषि के द्वारा बताये गए व्रत का माहत्म्य जान कर दोनों बड़े प्रसन्न हुए। एकादशी आने पर दोनों ने व्रत रखा और पूर्ण श्रद्धा से नियमपूर्वक उस व्रत का पालन किया। धीरे धीरे उनकी गरीबी दूर होने लगी, उनके पास हर समय भोजन उपलब्ध रहने लगा। उनके द्वार से कोई भी भूखा नहीं जाता था और न वे स्वयं भूखे रहते थे। इस प्रकार उन्होंने पृथ्वी पर लम्बे समय तक सुखपूर्वक जीवन व्यतीत किया और मृत्यु के पश्चात् व्रतों के पुण्य से श्री बैकुंठ धाम चले गए।
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