देवशयनी एकादशी व्रत मुहूर्त:-
12 जुलाई 2019 (शुक्रवार)
एकादशी तिथि प्रारम्भ = मध्य रात्रि 01:02 बजे (12 जुलाई 2019)
एकादशी तिथि समाप्त = मध्य रात्रि 12:31 बजे (13 जुलाई 2019)
देवशयनी एकादशी का महत्व :-
देवशयनी एकादशी आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कहा जाता है। यह एकादशी अत्यंत पावन मानी जाती है। इस दिन भगवान विष्णु आने वाले चार माह के लिए विश्राम करते हैं, अर्थात वह क्षीर सागर में अनंत शेष नाग की शय्या पर सो जाते हैं। इसी कारण इसे देवशयनी एकादशी कहा जाता है। इस दिन के बाद से हिन्दू धर्म में चार माह तक शुभ कार्य नहीं किये जाते। इस समय सन्यासी भी यात्रा नहीं करते, एक ही जगह पर तप करते हैं। कहा जाता है, इस समय काल में तीर्थ यात्रा भी नहीं की जाती केवल ब्रज की यात्रा की जा सकती है। क्योकि इस समय सभी तीर्थ ब्रज में आकर निवास करते हैं। सभी शुभ कार्य जैसे यज्ञोपवीत, गृह प्रवेश, विवाह, मुंडन आदि कार्य इस दिन से बंद होकर कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी से शुरू होते हैं, यह एकादशी देवउठनी एकादशी कहलाती है।
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देवशयनी एकादशी पूजा विधि :-
देवशयनी एकादशी व्रत की पूर्व रात्रि भोजन में नमक न लें। एकादशी के दिन प्रातःकाल उठकर नित्यकर्म के पश्चात् किसी पवित्र नदी में स्नान करें। यदि नदी न हो तो घर पर ही जल में थोड़ा गंगाजल मिलाकर उसे शुद्ध कर नहा लें, स्नान करते हुए ॐ नमो भगवते वासुदेवाय का जाप भी करते रहे। इसके पश्चात् सूर्य को अर्घ्य दें, और फिर मंदिर को गंगाजल से पवित्र कर पूजा आरम्भ करें। सर्वप्रथम भगवान विष्णु की सोने, चांदी अथवा पीतल की मूरत को स्नान कराएं और फिर उन्हें साफ़ कपडे से पोंछ लें। तत्पश्चात मंदिर में घी अथवा तिल के तेल का दीपक जलाएं। अब भगवान विष्णु को चन्दन का तिलक लगाएं और उनके चरणों में कुमकुम और अक्षत समर्पित करें। इसके बाद धूप तथा अगरबत्ती भगवान् को दिखाएं, और तत्पश्चात उनके चरणों में पुष्प तथा पात्र अर्पित करें। भगवान् विष्णु को पीला रंग अति प्रिय है इसलिए पीले रंग के पुष्प चढ़ाना उत्तम है। अंत में भगवान को नैवेद्य अर्पित करें और उनकी घी के दीपक से आरती उतारें। इसके पश्चात् विष्णु सहस्त्रनाम का जाप करें, तथा एकादशी व्रत की कथा पढ़ें अथवा सुने।
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देवशयनी एकादशी की व्रत कथा :-
एक नगर की बात है, सतयुग में राजा मंधाता एक राज्य के राजा थे। उनके राज्य में प्रजा हर प्रकार से सुखी थी। न धन की कमी, न वर्षा की कमी, न फसल की और न ही कोई बीमारी थी वहाँ। यह सब राजा के पुण्यों का ही फल था। प्रजा अपने राजा से अत्यंत प्रेम करती थी और राजा भी अपनी प्रजा को अपनी संतानों की तरह समझता था और उनकी हर ज़रूरतों का ध्यान रखता था। इसी प्रकार सुख में अनेक वर्ष बीत गए। किन्तु कुछ वर्षों बाद एक ऐसा समय आया जब वहां वर्षा होनी बंद हो गयी और राज्य में सूखा पड़ गया। धीरे धीरे नदियां भी सूखने लगी और जानवर भी प्यासे मरने लगे। सभी लोग इस से दुखी थे, किसी को कुछ समझ नहीं आता था कि ऐसा क्या पाप हो गया जो इंद्र देव रूठ गए और वर्षा बंद हो गयी। धीरे धीरे वर्ष पर वर्ष बीतने लगे किन्तु वर्षा नहीं हुई। अपनी प्रजा की ऐसी हालत देख राजा भी अत्यंत दुखी हो गया था। उसने कई विद्वानों और ज्योतिषों को अपने महल बुलाया और उनके बताये हर उपाय को निष्ठा पूर्वक किया किन्तु फिर भी वर्षा नहीं हुई।
परन्तु अब राजा से अपनी प्रजा का दुःख और देखा नहीं गया, उसने निश्चय किया कि वह महल छोड़ कर जंगलों में ऋषि मुनियों से इसका हल पूछेगा और तब तक राज्य में नहीं लौटेगा जब तक कोई ऋषि उसका सटीक उपाय न बताये।
ऐसा निश्चय कर वह जंगल की ओर चल दिया। कई दिन बीते, राजा को बहुत ऋषि मुनि मिले किन्तु कोई इसका उपाय नहीं बता पाया। और अंत में वह ब्रह्मा जी के पुत्र ऋषि अंगिरा के आश्रम पहुंचे। वहाँ के दिव्य वातावरण में उसे बहुत शांति मिली और उसकी समस्या के हल के लिए उसकी आशा भी प्रबल हो गयी। उसने हाथ जोड़कर ऋषि अंगिरा को प्रणाम किया और अपने राज्य का सारा वृतांत सुना दिया। उसने इस समस्या का उपाय पूछा। ऋषि अंगिरा ने अपनी दिव्य दृष्टि से उस राज्य का निरीक्षण किया और फिर कहा कि तुम्हारे राज्य में कोई शूद्र शास्त्रों की शिक्षा ग्रहण कर रहा है, जो कि महापाप है (उस युग में केवल ब्राह्मणों को ही शास्त्रों का अध्ययन करने की अनुमति थी)। इसी कारण तुम्हारे राज्य में वर्षा नहीं हो रही। तुम उस व्यक्ति का वध कर दो तो तुम्हारी समस्या हल हो जायेगी। किन्तु राजा का मन नहीं माना, वह व्यक्ति भी उसकी प्रजा का ही हिस्सा था और वह अपनी प्रजा को कोई कष्ट नहीं पहुँचाना चाहता था। इस कारण उसने कोई और उपाय पूछा। तब ऋषि ने उसे आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की देवशयनी एकादशी का महत्व बताया और कहा यदि तुम इस एकादशी का व्रत निष्ठा पूर्वक करते हो तो अवश्य ही भगवान् विष्णु तुम पर कृपा करेंगे। यह सुन राजा अत्यंत प्रसन्न हुआ और राज्य में लौटकर उसने यह व्रत स्वयं भी किया और सारी प्रजा से भी इस व्रत को करने का अनुरोध किया। उनकी निष्ठा और भक्ति से भगवान विष्णु प्रसन्न हुए और उनकी कृपा से राज्य में ज़ोरदार वर्षा हुई। और सारी प्रजा पहले की भांति सुखी हो गयी। इसके बाद से राजा सहित सारी प्रजा हर एकादशी के व्रत के निष्ठापूर्वक पालन करने लगी।
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