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क्यों है ज़रूरी भजन कीर्तन करते हुए हाथ उठाकर ताली बजाना?

हम मंदिरों में अक्सर ही यह देखते है कि जब भी आरती अथवा कीर्तन होता है तो, उसमें सभी लोग हाथ उठाकर तालियां बजाते है। लेकिन, हम में से अधिकाँश लोगों को यह नहीं मालूम होता है कि आखिर यह तालियां बजाई क्यों जाती है। हम से अधिकाँश लोग बिना कुछ जाने-समझे ही तालियां बजाया करते हैं क्योंकि, हम अपने बचपन से ही अपने बड़ों को ऐसा करते देखते रहे हैं। आपको यह जानकार काफी हैरानी होगी कि आरती अथवा कीर्तन में ताली बजाने की प्रथा बहुत पुरानी है और, श्रीमद्भागवत के अनुसार कीर्तन में ताली बजाने की प्रथा भक्त प्रह्लाद जी ने शुरू की थी, क्योंकि, जब वे भगवान का भजन करते या नाम संकीर्तन भी करते थे तो साथ-साथ ताली भी बजाते रहते थे।

हाथ उठाते ही होते हैं पापों से मुक्त:-

हमारी आध्यात्मिक मान्यता के अनुसार कहा जाता है कि जिस प्रकार व्यक्ति अपने बगल में कोई वस्तु छिपा ले और, यदि दोनों हाथ ऊपर करे तो वह वस्तु नीचे गिर जायेगी ठीक उसी प्रकार जब हम दोनों हाथ ऊपर उठकर ताली बजाते है तो, जन्मो से संचित पाप जो हमने स्वयं अपने बगल में दबा रखे है, नीचे गिर जाते हैं अर्थात नष्ट होने लगते है। कहा तो यहाँ तक जाता है कि संकीर्तन (कीर्तन के समय हाथ ऊपर उठा कर ताली बजाना) में काफी शक्ति होती है और, हरिनाम संकीर्तन से हमारे हाथो की रेखाएं तक बदल जाती है। इस बात से संबंधित एक पौराणिक कथा महाभारत काल में भी मिलती है।

द्रौपदी का चीर हरण कैसे बचा?:-

द्रौपदी चीर हरण की कथा बड़ी ही मार्मिक औऱ दिल को दहला देने वाली है। महाराज युधिष्ठिर जुए में अपना सारा राज पाठ, धन, इन्द्रप्रस्त, अपने सारे भाई, औऱ खुद को भी हार चुके थे। अंत में द्रौपदी को दांव पर लगाया औऱ द्रौपदी को भी शकुनि ने कुनीति से जीत लिया। अब द्रौपदी को दुर्योधन दासी कहने लगा। दुर्योधन बोला – दु:शासन! तुम जाओ और द्रौपदी को सभा में खींचकर लाओ। दु:शासन द्रौपदी के पास गया और उस बेचारी आर्त अबला को अनाथ की भाँति बालों से पकड़कर घसीटता हुआ सभा में ले आया। द्रौपदी ने देखा सभा में बैठे हुए सभी कुरूवंशी चुपचाप देख रहे हैं। 

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द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म, महात्मा विदुर तथा राजा धृतराष्ट्र में अब कोई शक्ति नहीं रह गयी है। अब दुर्योधन ने अपने भाई दु:शासन को कहा कि तुम इस दासी द्रोपदी के चीर का हरण कर लो। द्रोपदी को निर्वस्त्र कर दो। दु:शासन ने भरी सभा में द्रौपदी का वस्त्र बलपूर्वक पकड़कर खींचना शुरू कर दिया। जब वस्त्र खींचा जाने लगा, तब द्रौपदी ने अपनी पूरी क्षमता से खुद को बचाने का प्रयास किया और साथ ही श्री कृष्ण को याद किया। किन्तु कृष्ण वहां उपस्थित नहीं थे। और कोई भी महारथी उसकी सहायता के लिए आगे नहीं आ रहा था। किन्तु एक नारी कितनी देर तक एक शक्तिशाली पुरुष को रोक पाती। जब द्रौपदी ने अपना पूरा ज़ोर लगा लिया और दुः शासन को नहीं रोक पाई तो उसने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाये और कृष्ण को पुकारने लगी। अब दुः शासन उसकी साडी खींचने लगा, किन्तु द्रौपदी अपने आप को कृष्ण को समर्पित कर चुकी थी। द्रौपदी सब कुछ भुलाकर भगवान श्री कृष्ण को याद कर रही थी। द्रौपदी जी ने अपनी साड़ी का पल्लू पकड़ रखा था उसे भी छोड़ दिया। वह केवल और केवल श्री कृष्ण को याद कर रही थी।

 द्रौपदी की प्रार्थना:- 

द्रौपदी कहती हैं- ‘गोविन्द! हे द्वारकावासी श्रीकृष्ण! हे केशव! कौरव मेरा अपमान कर रहे हैं, क्या आप नहीं जानते?  हे रमानाथ! हे व्रजनाथ! हे संकटनाशन जनार्दन! मैं कौरव रूप समुद्र में डूबी जा रही हूँ, मेरा उद्धार कीजिये। ’सच्च्िदानन्द स्वरूप श्री कृष्ण! महायोगिन्! विश्रमात्मन्! विश्वभावन! गोविन्द! कौरवों के बीच में कष्ट पाती हुई मुझ शरणागत अबला की रक्षा कीजियें’।

हे कृष्ण ! मेरी लाज तेरी लाज , तेरी लाज मेरी लाज !! मेरी लाज जाएगी तो , तेरी लाज जाएगी..

 

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दु:शासन द्रौपदी की साड़ी खींचने में लगा हुआ था। लेकिन साड़ी खत्म ही नहीं होती। वो खींचता जा रहा था और साडी बढ़ती जा रही थी। द्रौपदी का चीर बढ़ता ही जा रहा था। और सभी भगवान के इस चमत्कार को देख रहे थे। दु:शासन में दस हजार हाथियों जितना बल था और द्रौपदी का चीर छोटा सा था, लेकिन भगवान का प्रेम देखिये–

दस हजार गज बल थक्यो , पर थक्यो दस गज चीर।।

दस हजार हाथियों की ताकत हार गई और दस गज चीर(साडी) की जीत हुई। भगवान श्री कृष्ण ने द्रौपदी की भरी सभा में लाज बचा ली।

 चाहिए पूर्ण समर्पण:- 

जिस तरह द्रौपदी ने जब तक अपने आप को बचाने के लिए अपना ज़ोर लगाया तब तक भगवान् ने उनकी सहायता नहीं की। किन्तु जैसे ही द्रौपदी ने अपने आप को पूर्ण समर्पित कर के भगवान् को याद किया वो तुरंत सहायता के लिए प्रस्तुत हो गए। इसी तरह हमे भी भजन या कीर्तन करते समय अपनी परेशानियों को भूल कर, अपने दुखों को भगवान् को समर्पित कर देना चाहिए। और दोनों हाथ ऊपर उठा कर स्वयं को पूर्ण समर्पित कर देना चाहिए। पूर्ण समर्पण से ही कृष्ण को पाया जा सकता है अर्थात ईश्वर को पाया जा सकता है।

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