Article

भीष्माष्टमीः जानिये क्यों भीष्म ने इसी दिन अपने प्राण त्यागे ?

भीष्म अष्टमी तिथि व मुहूर्त:- ​
 
02 फरवरी 2020 (रविवार)
अष्टमी तिथि प्रारम्भ - 06:10 (01 फरवरी 2020)
अष्टमी तिथि समाप्त - 08:03 (02 फरवरी 2020)
 
तिथिः 23 माघ, शुक्ल पक्ष, अष्टमी​, विक्रम सम्वत 
 
माघ मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को प्रतिवर्ष ये पर्व भीमाष्टमी के रूप में मनाया जाता है इसी दिन भीष्म पितामाह ने अपने शरीर को छोड़ा था इसीलिए इस दिन को भीष्म अष्टमी कहा गया है इस दिन को उनका निर्वाण दिवस भी कहते हैं। 
 
भीमाष्टमी व्रत का महत्व तथा इसके लाभः-​
 
इस दिन व्रत करने वालों के पिछले सभी पाप नष्ट हो जाते हैं तथा पितृदोष से भी मुक्ति मिलती है माना जाता है कि​ इस व्रत को करने से आपके मन में जो भी इच्छा होगी वह स्वतः ही पूर्ण हो जायेगी जो व्यक्ति पितरों के कारण जीवन में कठिनाईयों का सामना कर रहे हैं उनके लिये ये व्रत बहुत लाभकारी होता है क्योंकि इस व्रत को करने से पितरों को शांति ​मिलती है इस व्रत से घर में सुख समृद्वि व शान्ति बनी रहती है और पिछले किये सभी पापों का नाश होता है ​इस व्रत से व्यक्ति भूत प्रेत पिशाच आदि की योनि से मुक्त हो जाता है तथा मोक्ष को प्राप्त होता है​इस दिन भीष्म पितामाह ने स्वेच्छा से अपने प्राण त्यागे थे इसलिये इस दिन व्रती के मन की हर इच्छा पूर्ण होती है जिन विवाहित दम्पति के घर में अभी तक खुशियाँ नहीं आई हैं उन्हें यह व्रत अवश्य करना चाहिये इस व्रत से न केवल उनकी खाली झोली भर जायेगी अपितु होने वाली संतान अत्यंत बलशाली बुद्विमान व गुणवान होगी बहुत से लोग भीष्म पितामाह की आत्मा की शान्ति के लिये तर्पण करते हैं।​
 
भीमाष्टमी के दिन मुख्य श्लोक:-
 
शुक्लाष्टम्यां तु माघस्य दद्याद् भीष्माय यो जलम्।
संवत्सरकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।।
 
भावार्थः माघ की शुक्ल अष्टमी के दिन जो भीष्म के जल तर्पण करते हैं, उनके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं
 
कैसे करें ये व्रत:-
 
प्रातः काल उठकर स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण कर लें स्नान के लिये आप किसी नदी या जलाशय का भी प्रयोग कर सकते हैं अपने घर के चारों कोनों को गंगा जल से शुद्व कर लें इसके बाद तिल जल आदि लेकर दक्षिण की ओर मुख करके इस मंत्र का जाप करें।
 
 वैयाघ्रपादगोत्राय सांकृत्यप्रवराय च
 गङ्गापुत्राय भीष्माय सर्वदा ब्रह्मचारिणे ॥
 भीष्मः शान्तनवो वीरः सत्यवादी जितेन्द्रियः 
 आभिरद्भिरवाप्नोतु पुत्रपौत्रोचितां क्रियाम् ॥
 
 
 
इस व्रत को नियमानुसार करने से पितरों को शांति मिलती है तथा पितृदोष से भी मुक्ति मिलती है और निःसंतान दंपती को बलशाली गुणवान पुत्र की प्राप्ति होती है इस व्रत को करने से हमें मोक्ष का मार्ग प्राप्त होता है भीष्म पितामाह ने अपना शरीर अपनी इच्छानुसार त्यागा था इसलिये ये उनकी आत्मा की शांति का भी दिवस है इस दिन गरीबों व जरूरत मंदों को दान पुण्य इत्यादि किया जाता है इस दिन जो भीष्म पितामाह निमित्त जल तिल कुश के साथ श्राद्व करता है उसे मोक्ष प्राप्त होता है जिनके माता पिता जीवित हों उन्हें भी ये श्राद्व करना चाहिये भीष्म पितामाह ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने की अखण्ड प्रतिज्ञा ली थी उनका पूरा जीवन सत्य व न्याय के लिये ही व्यतीत हुआ इसी कारण महाभारत में भीष्म पितामाह एक विशेष स्थान रखते हैं​
 
 
 

स्वयं चुना था ये दिन:-
 
पुराणों के अनुसार जिस दिन भीष्म को तीर लगे वह दिन मलमास का था, इस समय को किसी भी प्रकार के शुभ कार्यों के लिये उपयुक्त नहीं समझा जाता इस माह में जो प्राणी अपने प्राण त्यागता है वह नर्क का भागी बनता है भीष्म पितामाह ये बात भलि भांति जानते थे इसलिये जब सूर्यदेव उत्तरायण हुए तो उन्होंने माघ माह की शुक्ल पक्ष अष्टमी को ही अपनी मृत्यु का उचित समय माना।
 
भीमाष्टमी की पौराणिक कथा:-
 
पुराणों के अनुसार कौरव वंश में एक राजा थे जिनका नाम शांतनु था शांतनु ने पवित्र माता गंगा से विवाह किया था तब गंगा ने शांतनु से एक वचन लिया था कि वह उनसे कभी कोई प्रश्न नहीं करेंगे अन्यथा वह उन्हें छोड़ देंगी शांतनु ने उन्हें ये वचन दे दिया कुछ समय के बाद गंगा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसे उसने गंगा में बहा दिया ऐसे ही एक एक करके उसने अपने सात पुत्रों को गंगा में बहा दिया शांतनु से ये सब देखा न गया जब गंगा ने अपने आठवें पुत्र देवव्रत को गंगा में बहाना चाहा तो शांतनु ने कारण पूछा - गंगा ने कहा ये सब शापित थे तथा किसी कारण से ही मृत्यु लोक में जन्में थे मैंने इन्हें मुक्ति दिलाई है आपने मुझे टोक दिया है अब मैं आपको छोड़कर जा रही हूँ और हमारे इस पुत्र को भी ले जा रही हूँ इसका लालन पालन करके मैं इसे आपको सौंप दूंगी इसका नाम देवव्रत है बाद में यही पुत्र भीष्म के नाम से विख्यात हुआ कुछ वर्षों बाद गंगा ने देवव्रत शांतनु को सौंप दिया और शांतनु ने उसे हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया कुछ समय बीत जाने के पश्चात् शांतनु एक सुंदरी सत्यवती पर मोहित हो गये और विवाह का प्रस्ताव लेकर उसके पिता के पास जा पहुँचे उसके पिता ने कहा हे राजन आपके साथ अपनी पुत्री का विवाह करना मेरे लिये सौभाग्य की बात है परन्तु मैं चाहता हूँ कि आप सत्यवती की आने वाली संतान को ही अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनायें शांतनु निराश मन से अपने राज्य लौट आये अपने पिता की उदासी तथा मौन का कारण मंत्रियों द्वारा ज्ञात होने के बाद देवव्रत सत्यवती के पिता के पास गये और उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने की अखण्ड प्रतिज्ञा ली उनके इस बलिदान को देखकर पिता शांतनु ने अपने पुत्र को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया इस भीष्म प्रतिज्ञा के बाद से ही देवव्रत का नाम ‘भीष्म‘ पड़ा महाभारत के धर्म युद्व में उन्होंने सूर्य के उत्तरायण पर माघ शुक्ल पक्ष में अपने प्राण त्यागे।

संबंधित लेख :​​​