भगवान विष्णु के 10 अवतारों में से वामन अवतार भगवान का 5वां अवतार था, ऋषि कश्यप तथा उनकी पत्नी अदिति के पुत्र थे वामन, श्रीमद्भगवत पुराण के अनुसार एक बार देवताओं और दैत्यों के बीच में महायुद्ध छिड़ गया था इस युद्ध में दैत्य पराजित हो रहे थे पराजित दैत्य मृत एंवम घायल दैत्यों को लेकर अस्ताचल चले जाते हैं दूसरी ओर दैत्यराज बलि भी देवराज इन्द्र के वज्रघात से मृत हो जाते हैं तभी दैत्यगुरू शुक्रराचार्य ने अपनी संजीवनी विद्या से सभी मृत और आहत हुए दैत्यों को जीवित व स्वस्थ कर दिया, इसके उपरांत दैत्यगुरू शुक्रराचार्य राजा बलि के लिये एक यज्ञ का आयोजन करते हैं वह अग्नि से बाण, दिव्य रथ तथा अवेध कवच पाते हैं, इन्हें पाने के बाद असुरों की शक्ति बहुत अधिक हो जाती है जिसके कारण दैत्य अब अमरावती पर आक्रमण करने लगते हैं।
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भगवान इन्द्र को राजा बलि की इच्छा का अनुमान होता है कि वह सौ यज्ञ करवाना चाहता है उन्हें ये ज्ञात होता है कि अगर राजा बलि सौ यज्ञ पूर्ण कर लेते हैं तो वह स्वर्ग को निश्चय ही प्राप्त करने में सक्षम हो जायेंगे, भगवान इन्द्र विष्णु भगवान की शरण में जाते हैं भगवान विष्णु उन्हें सहायता का आश्वासन देते हैं तथा माता अदिति की संतान के रूप में आने का वचन देते हैं दैत्यराज बलि द्वारा देवों के पराभव के बाद कश्यप जी के कहने से माता अदिति ने पयोव्रत का अनुष्ठान किया यह व्रत पुत्र प्राप्ति के लिये किया जाता है, भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन माता अदिति के गर्भ से प्रकट होकर भगवान ने वामन अवतार लिया था और ब्रह्मचारी ब्राह्ममण का रूप धारण कर लिया।
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महर्षि कश्यप ऋषियों के साथ उपनयन संस्कार करते हैं वामन बटुक को महर्षि पुलह ने यज्ञोपवीत, अगस्त्य ने मृगचर्म, मरीचि ने पलाश दण्ड, सूर्य ने छत्र, आंगिरस ने वस्त्र, भृगु ने खड़ाऊं, कमंडलु तथा गुरू देव जनेऊ, सरस्वती ने रूद्राक्ष माला, अदिति ने कोपीन, कुबेर ने भिक्षा पात्र प्रदान किये, भगवान वामन अपने पिता से आज्ञा लेकर राजा बलि के पास जाते हैं, राजा बलि नर्मदा के उत्तर तट पर अंतिम यज्ञ कर रहे थे, दण्ड, कमण्डलु, पलाश, छत्र लिये एक बहुत ही तेजस्वी जटाधारी ब्रह्मचारी वहाँ पधारे, ऋषिगण, शुक्राचार्य, बलि सभी उस तेजस्व से अभिभूत अपनी अग्नियों के साथ उठ गये, राजा बली ने उस ब्राह्ममण का स्वागत किया चरण धोये, पूजन करके प्रार्थना की कि जो भी आपके मन में हो मुझसे मांग लो।
तीन पग भूमिः-
वामन अवतारी भगवान विष्णु ने कहा कि मुझे केवल अपने पग से माप कर तीन पग भूमि दे दो, राजा बलि ने कहा कि वह और भी कुछ मांग ले महज़ तीन पग भूमि से क्या मिलेगा कुछ मांगना ही है तो उनके सामर्थ्य के हिसाब से मांग ले, परन्तु वामन ने वही मांगा जो उन्हें चाहिये था, शुक्राचार्य ने सावधान किया कि ये साक्षात् भगवान विष्णु है इनके छल में न आयें अन्यथा आपका सारा सर्वस्व चला जायेगा, परन्तु राजा बलि ने शुक्राचार्य कि बात नहीं मानी तब शुक्राचार्य ने राजा को पूर्ण ऐश्वर्य नाश होने का श्राप दे दिया, राजा बलि ने अपना संकल्प लिया और वामन रूपी भगवान ने अपना विराट रूप धारण किया और अपने एक पग में पूरी भूमि व दूसरे ही पग में समस्त ब्रह्मांड नाप लिया, उनका एक वाम पग ब्रह्मलोक से भी ऊपर तक चला गया, ब्रह्मा जी ने भगवान के चरण धोये तथा चरणोदक के साथ ब्रह्मद्रव को कमण्डलु में ले लिया, वही ब्रह्मद्रव गंगा जी बनी।
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राजा बलि का महादानः-
वामन अवतारी विष्णु ने कहा, तुमने मुझे तीन पग भूमि देने का वचन दिया है परन्तु मैंने तो दो पग में ही पूरी पृथ्वी और समस्त ब्रह्मांड नाप लिया है अब मेरा तीसरा पग रखने के लिये तुम्हारे पास कोई स्थान नहीं बचा है अर्थात तुम्हारा वचन झूठा हो गया है अब तुम मुझे तीसरा पग रखने के लिये कौन सा स्थान प्रदान करोगे, राजा बलि ने इस परिस्थिति में महादानी होने का परिचय देते हुए खुद को समर्पित कर दिया राजा ने विनम्र अनुरोध किया कि हे प्रभु अपना तीसरा पग मेरे सिर पर रखिये और उसने अपना मस्तिष्क झुका दिया, भगवान विष्णु राजा बलि के इस कथन से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपना तीसरा पग राजा बलि के सिर पर रख दिया, राजा बलि के दादा प्रहलाद भगवान विष्णु के परम भक्त थे उन्होंने तीसरा पग रखकर बलि को पाताल लोक में पहुँचा दिया इस कथन से यह साबित होता है कि कभी कभी हमारा घमण्ड ही हमारे नाश का कारण बन जाता है इसलिये हमें धनवान होने का अहंकार और घमण्ड नहीं करना चाहिये।
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भगवान वामन ने दिया वरदानः-
ब्राह्मण रूपी भगवान को अपना सब कुछ न्यौछावर करने वाले राजा को प्रसन्न होकर भगवान ने वरदान दिया कि तुम अगले मन्वन्तर में इन्द्र बनोगे, तब तक तुम सुतल में निवास करोगे, मैं नित्यक्रम से तुम्हारे द्वार पर गदापाणि उपस्थित रहूँगा, राजा बलि सभी असुरों को साथ लेकर स्वर्गाधिक ऐश्वर्य सम्पन्न सुतल लोक में चले गये, फिर शुक्राचार्य ने भगवान की आज्ञा से यज्ञ को पूरा किया फिर ब्रह्मा जी ने भगवान वामन को उपेन्द्र पद प्रदान किया तभी से वामन भगवान को उपेन्द्र नाम से भी जाना जाने लगा।
पूर्वजन्म की कथाः-
एक नगर में एक जुआरी रहता था, वह जुआ खेलता चोरी करता, वह नास्तिक भी था, उसमें सारे अवगुण थे उसके मित्र भी उसके जैसे ही थे एक दिन उसने बहुत सारा धन जीता उस धन से उसने स्वर्ण के आभूषण खरीदे, सुगंधित पुष्प खरीदे और पान का बीड़ा बनवाया और अपनी प्रेमिका से मिलने के लिये दौड़ने लगा जो कि एक वैश्या थी, तभी एक पत्थर से ठोकर खाकर वह नीचे गिर गया जिससे उसके सिर में चोट आई और वह बेहोश हो गया, जब उसे होश आया तो उसने सोचा कि मैं इतना उतावला क्यूँ हो रहा हूँ उस स्त्री के लिये जो एक वैश्या है, उसे पछतावा हुआ उसके मन वैराग्य भाव में आ गया उसने सारे फूल एकत्रित किये और पास के एक शिव मंदिर में जाकर शिवलिंग पर वह फूल चढ़ा दिये, समय बीत जाने के बाद उसकी मृत्यु हो गई उसे यमदूत यमलोक में चित्रगुप्त के सामने ले गये, चित्रगुप्त ने कहा तूने जीवन भर पाप ही किये हैं इसलिये तुझे नर्क भोगना पड़ेगा परन्तु तूने एक बार भगवान शिव की शिवलिंग पर फूल पवित्र मन से चढ़ाए थे इसलिये बहुत थोड़े समय के लिये तुझे स्वर्ग जाना होगा, वह कहता है हे प्रभु जब हमेशा के लिये नर्क ही भोगना है तो क्यों न पहले मुझे स्वर्ग में भेज दिया जाये ताकि मैं भी स्वर्ग को भोग सकूँ, देवगुरू बृहस्पति ने इन्द्र को समझाया तुम तीन घड़ी के लिये अपना सिंहासन इस जुआरी को दे दो, इन्द्र ने ऐसा ही किया, जबसे जुआरी उस पद पर बैठा उसने केवल दान पुण्य करना शुरू कर दिया उसने उच्चैश्रवा नामक घोड़ा विश्वामित्र को दे दिया, इन्द्र का ऐरावत महर्षि अगस्त्य को दे दिया, कामधेनु गाय महर्षि वशिष्ठ को दे दी, चिंतामणी रत्नमाला महर्षि मालव को दे दी, कल्पवृक्ष कौडिन्य मुनि को दान कर दिया, इन्द्र जब लौटकर आये तो बहुत ही क्रोधित हो उठे वह ब्रहस्पति जी के साथ यमराज के पास पहुँचे और बोले कि उस जुआरी को राजा बनाकर आपने गलत किया देखिये उसने सबकुछ दान में दे दिया यह देखकर धर्मराज ने कहा आप बूढ़े हो गये हैं पर आपकी राज्य की विषय आसक्ति गई नहीं है अच्छा होगा अगर आप धन देकर ऋषियों के चरण छूकर अपने रत्नादि वापिस मांग लें, उस जुआरी का मन भी भगवान में लीन हो गया उसने भगवान शिव की आराधना की, उस जुआरी ने अगला जन्म दानव कुल में लिया, दानव कुल में जन्मा वह पापी जुआरी कोई और नहीं महादानी विरोचन का पुत्र बलि था जो अपने पिता से भी बड़ा दानी हुआ, भगवान विष्णु ने जब दान में तीन पग धरती मांगी तो उसने अपना सब कुछ दान कर दिया था।
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