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जाने माता लक्ष्मी हमेशा ही भगवान श्रीहरि विष्णु के चरणों में क्यों रहती है? (Why is the Goddess Laxmi Always Shown Sitting Near the Feet of Lord Vishnu )

माता लक्ष्मी को श्री भी कहा जाता है, श्री अर्थात धन सम्पदा, सुख और भाग्य। माता लक्ष्मी श्री हरी नारायण की पत्नी हैं, और सदैव उनके चरणों के पास विराजती हैं। जो देवी सम्पूर्ण सृष्टि को वैभव और सौभाग्य प्रदान करतीं हैं, जो सभी मनुष्यों को सांसारिक ऐश्वर्य प्रदान करती हैं वे स्वयं क्यों हरी विष्णु के चरणों में निवास करती हैं? आइये इस प्रश्न का उत्तर जानने की कोशिश करते हैं-​

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मनुष्य को सदैव ही धन की आवश्यकता रहती है, विशेषकर इस काल में- चाहे वह शिक्षा हो, प्रशिक्षण हो अथवा भोजन हो। हर वस्तु के लिए मनुष्य को एक मोल चुकाना होता है, इसलिए मनुष्य को हर समय धन सम्पदा की आवश्यकता होती है और वह इसी को पाने के लिए दिन रात मेहनत करता रहता है तथा अपनी व अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करता है। किन्तु क्या यह वैभव केवल किस्मत वालों को ही मिलता है ? जी नहीं, किस्मत से धन या सम्पदा प्राप्त नहीं होती, और यदि होती भी है तो वह ज़्यादा समय तक टिकती नहीं है। क्योकि सम्पदा पाने के लिए कर्म ही सर्वोच्च साधन है। कर्म करने से ही मनुष्य योग्य बनता है, तथा कर्म प्रधान मनुष्यों के पास सदैव लक्ष्मी रहती है।​

यदि मनुष्य केवल धन प्राप्ति के पीछे भागता है तो लक्ष्मी उसे प्राप्त हो या न हो यह कहना मुश्किल है किन्तु जो मनुष्य केवल कर्म करता है लक्ष्मी स्वयं उसके पीछे पीछे आ जाती है। इसलिए मनुष्य को धन सम्पदा के पीछे भागना छोड़ कर्मठ बनना चाहिए।​

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माता लक्ष्मी को विष्णु जी के श्री चरणों में दिखाने का आध्यात्मिक अर्थ यही है की उन्होंने अपने पौरुष से 'श्री' को जीता है इसलिए वे सदैव उनके साथ है। वे कभी भी उस वैभव का उपभोग नहीं करना चाहते क्योकि वे योग पुरुष हैं इसलिए लक्ष्मी जी का स्थान उनके चरणों में है।​

लक्ष्मी का स्वभाव चंचल है, वे एक जगह रूकती नहीं इसलिए उन्हें एक जगह पर रोक कर रखना लगभग असंभव है किन्तु जब व्यक्ति इतना कर्मठ हो तब वह उसके पास से कहीं नहीं जाती। धन भी उस रेत की भांति है जिसे जितना सम्भालो उतना ही हाथ से निकलती रहती है। किन्तु यदि मनुष्य कर्म योगी हो तो लक्ष्मी जा कर भी उसके पास दौड़ी चली आती है। इसका उदाहरण हमें समुद्र मंथन में भी देखने को मिला था जब समुद्र मंथन से लक्ष्मी जी प्रकट हुईं थीं तब उन्हें प्राप्त करने के लिए देवताओं और राक्षशों में भयंकर युद्ध हुआ था। किन्तु लक्ष्मी जी ने श्री हरी विष्णु जी का वरण किया।

महालक्ष्मी नमस्तुभ्यं, नमस्तुभ्यं सुरेश्वरि।हरि प्रिये नमस्तुभ्यं, नमस्तुभ्यं दया निधे ।।

पद्मालये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं च सर्वदे।सर्व भूत हितार्थाय, वसु सृष्टिं सदा कुरुं ।।

 

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