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किस भूल के लिए लक्ष्मण को मिला मृत्युदंड (Why Rama had to Sentence Lakshmana to Death )

त्रेतायुग में लंका विजय के बाद भगवान राम के राज्य में प्रजा हर प्रकार से सुखी थी। पुरुषोत्तम राम के न्याय पर सब को पूर्ण विश्वास था। वे न्याय तथा करुणा के गुणों से भरे थे। परन्तु फिर भी ऐसा कुछ घटित हुआ कि श्री राम ने अपने प्रिय अनुज लक्ष्मण को मृत्युदंड दे दिया। आइए जानते हैं कि लक्ष्मण ने ऐसा क्या किया कि श्री राम को न चाहते हुए भी अपने प्रिय अनुज को मृत्युदंड देना पड़ा।​

श्री राम का वचन :-

एक दिन मृत्युराज अर्थात यमराज श्री राम से महत्वपूर्ण वार्तालाप करने अयोध्या पधारे। किन्तु किसी भी प्रकार की बात करने से पहले उन्होंने श्री राम से एक वचन माँगा, की हमारी बैठक में कोई अन्य व्यक्ति उपस्थित नहीं होगा और न ही कोई उस बीच हमारी बातों में व्यवधान डालेगा, यदि कोई ऐसा करता है तो आपको उसे मृत्युदंड देना होगा। भगवान राम हाथ जोड़कर उनकी यह शर्त मान लेते हैं और उन्हें वचन देते हैं।  ​

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लक्ष्मण बने द्वारपाल :-

श्री राम को इस कार्य के लिए एक द्वार रक्षक की आवश्यकता थी और उन्हें इसके लिए लक्ष्मण जी उपयुक्त लगे। उन्होंने लक्ष्मण को बुलवा कर उन्हें द्वारपाल का कार्य सौंपते हुए कहा कि जब तक उनके और यम के बीच वार्तालाप होगा, वे किसी को अंदर आने न दें। जो कोई भी वार्ता में व्यवधान डालेगा उसे मृत्युदंड दिया जायगा। लक्ष्मण जी श्री राम की आज्ञा पाकर द्वार पर खड़े हो जाते हैं।​

ऋषि दुर्वासा का आगमन :-

लक्ष्मण द्वार पर चौकसी से पहरा दे रहे थे की कुछ समय बीतने पर ऋषि दुर्वासा वहां आ पहुंचे। लक्ष्मण ने उनका स्वागत किया, किन्तु ऋषि दुर्वासा का क्रोधी स्वाभाव तो सभी जानते हैं, वह पूछने लगे श्री राम स्वागत के लिए क्यों नहीं आये। तब लक्ष्मण ने उन्हें जानकारी दी की वह एक अत्यंत महत्वपूर्ण बैठक में हैं, और उन्हें महल के भीतर चलने के लिए कहा। किन्तु ऋषि दुर्वासा क्रोधित हो गए, और बोले की कोई भी वार्तालाप एक ब्राह्मण के आतिथ्य से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो सकती। उन्होंने लक्ष्मण से कहा की उन्हें शीघ्र द्वार पर लेकर आओ नहीं तो मैं इस पूर्ण नगर को श्राप दे दूंगा। लक्ष्मण जी जानते थे यह विकट परिस्थिति है, और इस से निपटने के लिए उन्होंने अपना बलिदान देना उचित समझा जिससे की नगर वासियों को ऋषि का श्राप न झेलना पड़े।​

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और वह श्री राम को बुलाने उनकी वार्ता के बीच में ही पहुंच गए। श्री राम उन्हें देखकर आश्चर्य और दुःख से भर गए, तब लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर क्षमा मांगी और ऋषि दुर्वासा के पधारने की सूचना प्रभु को दी। श्री राम समझ गए की लक्ष्मण ने अपना बलिदान दिया है, और जल्द ही ऋषि दुर्वासा के स्वागत के लिए द्वार पर पहुंचे।

श्री राम की दुविधा :-

ऋषि दुर्वासा की आव भगत की गयी और उनके जाने के पश्चात श्री राम दुविधा में पड़ गए की इस प्रकार लक्ष्मण को मृत्युदंड दें जबकि उनका कोई दोष भी नहीं। तब श्री राम ने अपने गुरु ऋषि वशिष्ठ से परामर्श लिया। गुरुदेव ने कहा, किसी अपने प्रिय का त्याग मृत्युदंड के समान ही है अतः तुम लक्षमण का त्याग कर दो।​

जब लक्ष्मण ने ये सुचना पाई कि श्री राम उनका त्याग करेंगे तो वे दुःख से भर कर रुदन करने लगे और उन्होंने कहा प्रभु मेरा त्याग करेंगे तो मैं न जी पाउँगा और न ही शांति से मर सकूंगा। इसलिए उचित होगा की मैं अभी अपने प्राण त्याग दू। ऐसा कहकर उन्होंने जल समाधी ले ली।

धन्य हों ऐसे राजा जो अपनी प्रजा के लिए अपने सभी सुखों का त्याग कर देते हैं और धन्य हों ऐसे भ्राता जो उनकी आज्ञा को अपने प्राणों से अधिक महत्व देते हैं।

 

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