स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती (2 फरवरी, 1856 - 23 दिसम्बर, 1926) भारत के शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के संन्यासी थे जिन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं का प्रसार किया। वे भारत के उन महान राष्ट्रभक्त संन्यासियों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपना जीवन स्वाधीनता, स्वराज्य, शिक्षा तथा वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया था। उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय आदि शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की और हिन्दू समाज को संगठित करने तथा 1920 के दशक में शुद्धि आन्दोलन चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती |
|
जन्म |
2 फरवरी, 1856 |
मृत्यु |
23 दिसम्बर, 1926 |
जन्म स्थान |
ग्राम तलवान, जालन्धर, भारत |
जीवन परिचय
स्वामी श्रद्धानन्द का जन्म 2 फ़रवरी सन् 1856 (फाल्गुन कृष्ण त्र्योदशी, विक्रम संवत् 1913) को पंजाब प्रान्त के जालन्धर जिले के तलवान ग्राम में एक कायस्थ परिवार में हुआ था।
उनके पिता, लाला नानक चन्द, ईस्ट ईण्डिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में पुलिस अधिकारी थे। उनके बचपन का नाम वृहस्पति और मुंशीराम था, किन्तु मुन्शीराम सरल होने के कारण अधिक प्रचलित हुआ।
पिता का ट्रान्सफर अलग-अलग स्थानों पर होने के कारण उनकी आरम्भिक शिक्षा अच्छी प्रकार नहीं हो सकी। लाहौर और जालंधर उनके मुख्य कार्यस्थल रहे। एक बार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती वैदिक-धर्म के प्रचारार्थ बरेली पहुंचे। पुलिस अधिकारी नानकचन्द अपने पुत्र मुंशीराम को साथ लेकर स्वामी दयानन्द का प्रवचन सुनने पहुँचे।
युवावस्था तक मुंशीराम ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे। लेकिन स्वामी दयानन्द जी के तर्कों और आशीर्वाद ने मुंशीराम को दृढ़ ईश्वर विश्वासी तथा वैदिक धर्म का अनन्य भक्त बना दिया।
वे एक सफल वकील बने तथा काफी नाम और प्रसिद्धि प्राप्त की। आर्य समाज में वे बहुत ही सक्रिय रहते थे।
उनका विवाह श्रीमती शिवा देवी के साथ हुआ था। जब आप 35 वर्ष के थे तभी शिवा देवी स्वर्ग सिधारीं। उस समय उनके दो पुत्र और दो पुत्रियां थीं। सन् 1917 में उन्होने सन्यास धारण कर लिया और स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए।
गुरुकुल की स्थापना
स्वामी श्रद्धानन्द जी |
सन् 1901 में मुंशीराम ने अंग्रेजों द्वारा जारी शिक्षा पद्धति के स्थान पर वैदिक धर्म तथा भारतीयता की शिक्षा देने वाले संस्थान "गुरुकुल" की स्थापना की। हरिद्वार के कांगड़ी गांव में गुरुकुल विद्यालय खोला गया। इस समय यह मानद विश्वविद्यालय है जिसका नाम गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय है।
गांधी जी उन दिनों अफ्रीका में संघर्षरत थे। महात्मा मुंशीराम जी ने गुरुकुल के छात्रों से 1500 रुपए एकत्रित कर गांधी जी को भेजे। गांधी जी जब अफ्रीका से भारत लौटे तो वे गुरुकुल पहुंचे तथा महात्मा मुंशीराम तथा राष्ट्रभक्त छात्रों के समक्ष नतमस्तक हो उठे।
स्वामी श्रद्धानन्द ने ही सबसे पहले उन्हे महात्मा की उपाधि से विभूषित किया और बहुत पहले यह भविष्यवाणी कर दी थी कि वे आगे चलकर बहुत महान बनेगे।
पत्रकारिता एवं हिन्दी-सेवा
उन्होने पत्रकारिता में भी कदम रखा। वे उर्दू और हिन्दी भाषाओं में धार्मिक व सामाजिक विषयों पर लिखते थे। बाद में स्वामी दयानन्द सरस्वती का अनुसरण करते हुए उनने देवनागरी लिपि में लिखे हिन्दी को प्राथमिकता दी। उनका पत्र सद्धर्म पहले उर्दू में प्रकाशित होता था और बहुत लोकप्रिय हो गया था। किन्तु बाद में उनने इसको उर्दू के बजाय देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी में निकालना आरम्भ किया।
इससे इनको आर्थिक नुकसान भी हुआ। उन्होने दो पत्र भी प्रकाशित किये, हिन्दी में अर्जुन तथा उर्दू में तेज। जलियांवाला काण्ड के बाद अमृतसर में कांग्रेस का 43वां अधिवेशन हुआ। स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में अपना भाषण हिन्दी में दिया और हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किए जाने का मार्ग प्रशस्त किया।
स्वतन्त्रता आन्दोलन
उन्होने स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ-चढकर भाग लिया। गरीबों और दीन-दुखियों के उद्धार के लिये काम किया। स्त्री-शिक्षा का प्रचार किया। सन् 1919 में स्वामी जी ने दिल्ली में जामा मस्जिद क्षेत्र में आयोजित एक विशाल सभा में भारत की स्वाधीनता के लिए प्रत्येक नागरिक को आपसी मतभेद भुलाकर एकजुट होने का आह्वान किया था।
शुद्धि
स्वामी श्रद्धानन्द ने जब कांग्रेस के कुछ प्रमुख नेताओं को "मुस्लिम तुष्टीकरण की घातक नीति" अपनाते देखा तो उन्हें लगा कि यह नीति आगे चलकर राष्ट्र के लिए विघटनकारी सिद्ध होगी। इसके बाद कांग्रेस से उनका मोहभंग हो गया। दूसरी ओर कट्टरपंथी मुस्लिम तथा ईसाई हिन्दुओं का मतान्तरण कराने में लगे हुए थे।
स्वामी जी ने असंख्य व्यक्तियों को आर्य समाज के माध्यम से पुन: वैदिक धर्म में दीक्षित कराया। उन्होंने गैर-हिन्दुओं को पुनः अपने मूल धर्म में लाने के लिये शुद्धि नामक आन्दोलन चलाया और बहुत से लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित किया।
स्वामी श्रद्धानन्द पक्के आर्यसमाज के सदस्य थे, किन्तु सनातन धर्म के प्रति दृढ़ आस्थावान पंडित मदनमोहन मालवीय तथा पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ को गुरुकुल में आमंत्रित कर छात्रों के बीच उनका प्रवचन कराया था।
हत्या
23 दिसंबर 1926 को नई बाज़ार, दिल्ली में उनकी मुस्लिम अब्दुल रशीद द्वारा हत्या कर दी गई, जो एक आगंतुक के रूप में उनके घर में प्रवेश कर आया। उनकी मृत्यु के बाद, गांधी ने एक शोक प्रस्ताव 25 दिसंबर 1926 को कांग्रेस के गुवाहाटी सत्र में। संबंधित भाग भाषण से एक अंश है, "यदि आप स्वामी श्रद्धानंद जी की स्मृति को प्रिय मानते हैं, तो आप पारस्परिक नफरत और व्यंग्य के माहौल को शुद्ध करने में मदद करेंगे।
आप उन कागजात का बहिष्कार करने में मदद करेंगे, जो नफरत को बढ़ावा देते हैं और गलत बयान फैलाते हैं। आज भारत को कुछ नहीं खोयेगा, यदि 90 प्रतिशत कागज़ात आज समाप्त हो जाएं अब आप शायद समझ जाएंगे कि मैंने अब्दुल रशीद को एक भाई क्यों बुलाया है और मैं इसे दोहराता हूं।
मैं उन्हें स्वामी जी की हत्या का दोषी नहीं मानता। बल्कि उन्हें मानता हूँ जो एक दूसरे के प्रति घृणा की भावनाओं को उत्साहित करते हैं। हम हिंदुओं गीता ने समानता के सबक के लिए आज्ञा दी हैI
आज हरिद्वार में गुरुकुल्ल कांगड़ी विश्वविद्यालय के पुरातात्विक संग्रहालय में 'स्वामी श्रद्धानन्द कक्षा' उनकी जीवन यात्रा की तस्वीर पेश करता है।
आजादी के बाद दिल्ली टाउन हॉल के सामने रानी विक्टोरिया की मूर्ति की जगह, उनकी मूर्ति को जगह दी गयी थी । पुरानी दिल्ली में इस स्थान को घंटाघर कहा जाता है क्योंकि 1950 के दशक तक यहां पुरानी घड़ी की टॉवर खड़ी हुई थी।
Amreesh Kumar Aarya (वार्ता) 09:31, 14 दिसम्बर 2017 (UTC)Amreesh Kumar Aarya