लल्लेश्वरी या लल्ल-दय्द (1320-1392) के नाम से जाने जानेवाली चौदहवीं सदी की एक भक्त कवियित्री थी जो कश्मीर की शैव भक्ति परम्परा और कश्मीरी भाषा की एक अनमोल कड़ी थीं। लल्ला का जन्म श्रीनगर से दक्षिणपूर्व मे स्थित एक छोटे से गाँव में हुआ था। वैवाहिक जीवन सु:खमय न होने की वजह से लल्ला ने घर त्याग दिया था और छब्बीस साल की उम्र में गुरु सिद्ध श्रीकंठ से दीक्षा ली।
कश्मीरी संस्कृति और कश्मीर के लोगों के धार्मिक और सामाजिक विश्वासों के निर्माण में लल्लेश्वरी का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।
कश्मीर में लल्लेश्वरी नामक एक संत थी । उनका विवाह बारह वर्ष की अवस्था में हुआ था, किंतु ससुराल में उनके प्रति दुर्व्यवहार होने से उन्होंने घर त्याग दिया और सेदवायु नामक एक संत से दीक्षा ले ली।
भगवद्-भजन में वे इतनी लीन रहने लगीं कि लोक-लज्जा का भी उन्हें ख्याल न रहता। मीरा के समान मतवाली हो वे भजन करती हुई जब सड़क से गुजरतीं, तो लोग उनका उपहास उड़ाते।
एक बार वे भजन करती हुई मंदिर जा रही थीं कि बच्चे उनके पीछे पड़ गए और उन्हें चिढ़ाने लगे। इस पर एक वस्त्र-व्यापारी ने उन्हें डांटा और भगा दिया। वे बच्चे जब भाग गए तो व्यापारी विजयी मुस्कान से लल्लेश्वरी की ओर देखने लगा। उसकी भंगिमा बता रही थीं कि उसने जैसे संत की बड़ी सेवा की है।
लल्लेश्वरी ने व्यापारी की ओर आशीर्वादात्मक मुद्रा में हाथ उठाया। उसने समझा कि संत प्रसन्न हैं, वह संत के पास गया और उनकी वंदना की। लल्लेश्वरी ने व्यापारी से एक कपड़ा मांगा और उसके दो बराबर-बराबर टुकड़े करने को कहा।
व्यापारी द्वारा वैसा करने पर उन टुकड़ों को अपने दोनों कंधों पर डालकर वे आगे बढ़ीं। रास्ते में जब कोई उनका अभिवादन करता या हंसी उड़ाता, तो वे उन टुकड़ों में एक-एक गठान बांधतीं।
मंदिर से लौटने पर उन्होंने वे टुकड़े व्यापारी को वापस करते हुए उनका वजन करने को कहा। वजन करने पर उनका वजन बराबर-बराबर मिला।
तब लल्लेश्वरी बोलीं, 'प्रशंसा या निंदा का हमें बिलकुल ख्याल नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये दोनों एक-दूसरे को संतुलित करती रहती हैं। इसलिए हमें सबको समान दृष्टि से देखना चाहिए और समान भाव से ग्रहण करना चाहिए।'
संत ललेश्वरी अपने (लल, लला, ललारिफा, ललदेवी आदि) नामों से विख्यात हैं। इस कवयित्री को कश्मीरी साहित्य में वही स्थान प्राप्त है जो हिन्दी में कबीर को है।
काव्य
फूल चन्द्रा द्वारा लल्लेश्वरी के कुछ वाख का अनुवाद नीचे प्रस्तुत हैः
1
प्रेम की ओखली में हृदय कूटा
प्रकृति पवित्र की पवन से।
जलायी भूनी स्वयं चूसी
शंकर पाया उसी से।।
2
हम ही थे, हम ही होंगे
हम ही ने चिरकाल से दौर किये
सूर्योदय और अस्त का कभी अन्त नहीं होगा
शिव की उपासना कभी समाप्त नहीं होगी।