वैदिक समय से ही विष्णु सम्पूर्ण विश्व की सर्वोच्च शक्ति तथा नियन्ता के रूप में मान्य रहे हैं।
हिन्दू धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में बहुमान्य पुराणानुसार विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो रूप ब्रह्मा और शिव को माना जाता है। ब्रह्मा को जहाँ विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है, वहीं शिव को संहारक माना गया है। मूलतः विष्णु और शिव तथा ब्रह्मा भी एक ही हैं यह मान्यता भी बहुशः स्वीकृत रही है। न्याय को प्रश्रय, अन्याय के विनाश तथा जीव (मानव) को परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग-ग्रहण के निर्देश हेतु विभिन्न रूपों में अवतार ग्रहण करने वाले के रूप में विष्णु मान्य रहे हैं।
पुराणानुसार विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं। विष्णु का निवास क्षीर सागर है। उनका शयन शेषनाग के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी स्थित हैं।
वह अपने नीचे वाले बाएँ हाथ में पद्म (कमल) , अपने नीचे वाले दाहिने हाथ में गदा (कौमोदकी) ,ऊपर वाले बाएँ हाथ में शंख (पांचजन्य) और अपने ऊपर वाले दाहिने हाथ में चक्र(सुदर्शन) धारण करते हैं।
'विष्णु' शब्द की व्युत्पत्ति मुख्यतः 'विष्' धातु से ही मानी गयी है। ('विष्' या 'विश्' धातु लैटिन में - vicus और सालविक में vas -ves का सजातीय हो सकता है।) निरुक्त (12.18) में यास्काचार्य ने मुख्य रूप से 'विष्' धातु को ही 'व्याप्ति' के अर्थ में लेते हुए उससे 'विष्णु' शब्द को निष्पन्न बताया है। वैकल्पिक रूप से 'विश्' धातु को भी 'प्रवेश' के अर्थ में लिया गया है, 'क्योंकि वह विभु होने से सर्वत्र प्रवेश किया हुआ होता है।
आदि शंकराचार्य ने भी अपने विष्णुसहस्रनाम-भाष्य में 'विष्णु' शब्द का अर्थ मुख्यतः व्यापक (व्यापनशील) ही माना है, तथा उसकी व्युत्पत्ति के रूप में स्पष्टतः लिखा है कि "व्याप्ति अर्थ के वाचक नुक् प्रत्ययान्त 'विष्' धातु का रूप 'विष्णु' बनता है"। 'विश्' धातु को उन्होंने भी विकल्प से ही लिया है और लिखा है कि "अथवा नुक् प्रत्ययान्त 'विश्' धातु का रूप विष्णु है; जैसा कि विष्णुपुराण में कहा है-- 'उस महात्मा की शक्ति इस सम्पूर्ण विश्व में प्रवेश किये हुए हैं; इसलिए वह विष्णु कहलाता है, क्योंकि 'विश्' धातु का अर्थ प्रवेश करना है"।
ऋग्वेद के प्रमुख भाष्यकारों ने भी प्रायः एक स्वर से 'विष्णु' शब्द का अर्थ व्यापक (व्यापनशील) ही किया है। विष्णुसूक्त (ऋग्वेद-1.154.1 एवं 3) की व्याख्या में आचार्य सायण 'विष्णु' का अर्थ व्यापनशील (देव) तथा सर्वव्यापक करते हैं; तो श्रीपाद दामोदर सातवलेकर भी इसका अर्थ व्यापकता से सम्बद्ध ही लेते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी 'विष्णु' का अर्थ अनेकत्र सर्वव्यापी परमात्मा किया है और कई जगह परम विद्वान् के अर्थ में भी लिया है।
इस प्रकार सुस्पष्ट परिलक्षित होता है कि 'विष्णु' शब्द 'विष्' धातु से निष्पन्न है और उसका अर्थ व्यापनयुक्त (सर्वव्यापक) है।
वैदिक देव-परम्परा में सूक्तों की सांख्यिक दृष्टि से विष्णु का स्थान गौण है क्योंकि उनका स्तवन मात्र 5 सूक्तों में किया गया है; लेकिन यदि सांख्यिक दृष्टि से न देखकर उनपर और पहलुओं से विचार किया जाये तो उनका महत्त्व बहुत बढ़कर सामने आता है। ऋग्वेद में उन्हें 'बृहच्छरीर' (विशाल शरीर वाला), युवाकुमार आदि विशेषणों से ख्यापित किया गया है।
ऋग्वेद में उल्लिखित विष्णु के स्वरूप एवं वैशिष्ट्यों का अवलोकन निम्नांकि बिन्दुओं में किया जा सकता है :-
विष्णु की अनुपम विशेषता उनके तीन पाद-प्रक्षेप हैं, जिनका ऋग्वेद में बारह बार उल्लेख मिलता है। सम्भवतः यह उनकी सबसे बड़ी विशेषता है। उनके तीन पद-क्रम मधु से परिपूर्ण कहे गये हैं, जो कभी भी क्षीण नहीं होते। उनके तीन पद-क्रम इतने विस्तृत हैं कि उनमें सम्पूर्ण लोक विद्यमान रहते हैं (अथवा तदाश्रित रहते हैं)। ‘त्रेधा विचक्रमाणः’ भी प्रकारान्तर से उनके तीन पाद-प्रक्षेपों को ध्वनित करता है। ‘उरुगाय’ और ‘उरुक्रम’ आदि पद भी उक्त तथ्य के परिचायक हैं। मधु से आपूरित उनके तीन पद-क्रम में से दो दृष्टिगोचर हैं, तीसरा सर्वथा अगोचर। इस तीसरे सर्वोच्च पद को पक्षियों की उड़ान और मर्त्य चक्षु के उस पार कहा गया है।[12]यास्क के पूर्ववर्ती शाकपूणि इन तीन पाद-प्रक्षेपों को ब्रह्माण्ड के तीन भागों-- पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्युलोक में सूर्य की संचार गति के प्रतीक मानते हैं। यास्क के ही पूर्ववर्ती और्णवाभ उन्हें सूर्य के उदय, मध्याकाश में स्थिति तथा अस्त का वाची मानते हैं। तिलक महोदय इनसे वर्ष के त्रिधाविभाजन (प्रत्येक भाग में 4 महीने) का संकेत मानते हैं। यदि देखा जाये तो अधिकांश विद्वान् विष्णु को सूर्य-वाची मान कर उदयकाल से मध्याह्न पर्यन्त उसका एक पादप्रक्षेप, मध्याह्न से अस्तकाल पर्यन्त द्वितीय पादप्रक्षेप और अस्तकाल से पुनः अग्रिम उदयकाल तक तृतीय पाद-प्रक्षेप स्वीकारते हैं। इन्हीं पूर्वोक्त दो पाद-प्रक्षेपों को दृष्टिगोचर और तीसरे को अगोचर कहा गया है। लेकिन मैकडाॅनल सहित अन्य अनेक विद्वानों का भी कहना है कि इस अर्थ में तीसरे चरण को 'सर्वोच्च' कैसे माना जा सकता है? इसलिए वे लोग पूर्वोक्त शाकपूणि की तरह तीन चरणों को सौर देवता के तीनों लोकों में से होकर जाने के मार्ग को मानते हैं। सूर्य की कल्पना का ही समर्थन करते हुए मैकडानल ने विष्णु द्वारा अपने 90 अश्वों के संचालित किये जाने का उल्लेख किया है, जिनमें से प्रत्येक के चार-चार नाम हैं। इस प्रकार 4 की संख्या से गुणीकृत 90 अर्थात् 360 अश्वों को वे एक सौर वर्ष के दिनों से अभिन्न मानते हैं। वस्तुतः विष्णु के दो पदों से सम्पूर्ण विश्व की नियन्त्रणात्मकता तथा तीसरे पद से उनका परम धाम अर्थात् उनकी प्राप्ति संकेतित है। स्वयं ऋग्वेद में ही इन तीन पदों की रहस्यात्मक व्याख्या की गयी है। इसलिए इस पद को ज्ञानात्मक मानकर ऋग्वेद में ही स्पष्ट कहा गया है कि विष्णु का परम पद ज्ञानियों द्वारा ही ज्ञातव्य है।
वैसे तो विष्णु को वाणी में निवास करने वाला भी माना जाता है, किन्तु उनका परम प्रिय आवास स्थल 'पाथः' ऋग्वेद में बहुचर्चित है। आचार्य सायण ने ‘गिरि’ पद को श्लिष्ट मानकर उसका अर्थ 'वाणी' के साथ-साथ लाक्षणिक रूप में ‘पर्वत के समान उन्नत लोक’ भी किया है। 'गिरि' को यदि इन दोनों अर्थों में स्वीकृत कर लिया जाये तो समस्या का समाधान हो जाता है। विष्णु का तीसरा पद जहाँ पहुँचता है वही उनका आवास स्थान है। विष्णु का लोक ‘परम पद’ है अर्थात् गन्तव्य रूपेण वह सर्वोत्कृष्ट लोक है। उस ‘परम पद’ की विशेषता यह है कि वह अत्यधिक प्रकाश से युक्त है। वहाँ अनेक शृंगों वाली गायें (अथवा किरणें) संचरण किया करती हैं। ‘गावः’ यहाँ श्लिष्ट पद की तरह है। श्लेष से उसका अर्थ ‘गायें’ करने पर वहाँ दुग्ध आदि भौतिक पुष्टि का प्राचुर्य एवं ‘किरणें’ करने पर वहाँ प्रकाश अर्थात् आत्मिक उन्नति का बाहुल्य सहज ही अनुमेय है। विष्णु के ‘परम पद’ में मधु का स्थायी उत्स (= स्रोत) है। यह ‘मधु’ देवताओं को भी आनन्दित करने वाला है। इस श्लिष्ट पद का जो भी अर्थ किया जाये पर वह हर स्थिति में परमानन्द का वाचक है, जिसके लिए देवता सहित समस्त प्राणी अभिलाषी भी रहते हैं और प्रयत्नशील भी। इसलिए उक्त लोक की प्राप्ति की कामना सभी करते हैं। उसी मंत्र में वहाँ पुण्यशाली लोगों का, तृप्ति (आनन्द, प्रसन्नता) का अनुभव करते हुए उल्लेख भी हुआ है।
विष्णु की एक प्रमुख विशेषता उनका इन्द्र से मैत्रीभाव है। इन्द्र के साहचर्य में ही उनके तीन पाद-प्रक्षेपों का प्रवर्तन होता है। इन्द्र के साथ मिलकर वह शम्बर दैत्य के 99 किलों का विनाश करते हैं। इसी प्रकार वह वृत्र के साथ संग्राम में भी इन्द्र की सहायता करते हैं। दोनों को कहीं-कहीं एक दूसरे की शक्तियों से युक्त भी बतलाया गया है। इस प्रकार विष्णु द्वारा सोमपान किया जाना और इन्द्र द्वारा तीन पाद-प्रक्षेप किया जाना भी वर्णित है। ऋग्वेद, मण्डल 6, सूक्त 69 में दोनों देवों का युग्मरूपेण स्तवन हुआ है। इसी प्रकार ऋग्वेद के मण्डल 5, सूक्त 87 में इन्द्र के सहचर मरुद्गणों के साथ उनकी सहस्तुति प्राप्त होती है।
विष् धातु से व्युत्पन्न विष्णु पद का शाब्दिक अर्थ ‘व्यापक, गतिशील, क्रियाशील अथवा उद्यम-शील’ होता है। अपने बल-विक्रम के ही कारण वे लोगों द्वारा स्तुत होते हैं। वे अनन्त वीर्यवाले हैं। इस गुण के कारण ही उन्हें प्रतीक रूप से ‘वृष्ण’ भी माना गया है।
अपने वीर्य (बल) अथवा वीर कर्मों के कारण वे शत्रुओं के भय का कारण हैं। उनसे लोग उसी प्रकार भयभीत रहते हैं, जिस प्रकार किसी पर्वतचारी सिंह से। ‘परमेश्वराद्भीतिः’ आदि श्रुति-वचनों से सामान्य जनों का भी उनसे भय करना सिद्ध हो जाता है। उनसे भयभीत होना अकारण नहीं है। वे कुत्सितों (शत्रुओं) का वध आदि हिंसाकर्म करने वाले हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि वे कुत्सित हिंसादिकर्ता (कुचरः) का ही वध करते है। इसलिए उनके लिए कहा गया है कि वे हत्यारे नहीं हैं।
विष्णु विस्तीर्ण, व्यापक और अप्रतिहत गति वाले हैं। ‘उरुगाय’ और ‘उरुक्रम’ आदि पद इस तथ्य के पोषक हैं। ‘उरुगाय’ का अर्थ आचार्य सायण द्वारा ‘महज्जनों द्वारा स्तूयमान’ अथवा ‘प्रभूततया स्तूयमान’ करने से भी विष्णु की महिमा विखण्डित नहीं होती। डाॅ.यदुनन्दन मिश्र का कहना है कि इस पद का अर्थ ‘विस्तीर्ण गति वाला’ करने के लिए हम इसलिए आग्रहवान् हैं, क्योंकि उसे ‘सभी लोकों में संचरण करने वाला’ कहा गया है। उनके पद-क्रम इतने सुदीर्घ होते हैं कि वे अपने तीन पाद-प्रक्षेपों से ही तीनों लोकों को नाप लेते हैं।
विष्णु के तीन पद यदि सृष्टि करते हैं, स्थापन करते हैं, धारण करते हैं तो वहीं पर आश्रित जनों का पालन-पोषण भी किया करते हैं। लोगों को अपना भोग्य अन्नादि उन्हीं तीन पद-क्रमों के प्रसादस्वरूप प्राप्त होता है, जिससे कि वे परम तृप्ति का अनुभव किया करते हैं। जो लोग विष्णु की स्तुति करते हैं, उनका वे सर्वविध कल्याण करते हैं, क्योंकि उनके स्तवनादि कर्म से उसे परम स्फूर्ति मिलती है। इस प्रकार स्फूर्ति-प्रदायिनी स्तुति विष्णु तक पहुँचा पाने के लिये सभी लालायित रहते हैं। वे वरिष्ठ दाता हैं।
विष्णु के गुणों में भी त्रयात्मकता परिलक्षित होती है। वे तीन पद-क्रम वाले, तीन प्रकार की गति करने वाले, तीनों लोकों को नाप लेने वाले और लोकत्रय के धारक हैं। इसी प्रकार वह ‘त्रिधातु’ अर्थात् सत्, रज और तम का समीकृत रूप अथवा पृथ्वी, जल और तेज से युक्त भी हैं।
सर्जक-पालक-संहारक
विष्णु पार्थिव लोकों का निर्माण और परम विस्तृत अन्तरिक्ष आदि लोकों का प्रस्थापन करने वाले हैं। वे स्वनिर्मित लोकों में तीन प्रकार की गति करने वाले हैं। उनकी ये तीन गतियाँ उद्भव, स्थिति और विलय की प्रतीक हैं। इस प्रकार जड़-जंगम सभी के वे निर्माता भी हैं, पालक भी और विनाशक भी। वे 'लोकत्रय का अकेला धारक' हैं। वे अपने तीन पाद-प्रक्षेपों से अकेले ही तीनों लोकों को नाप लेते हैं। लोकत्रय को नाप लेने से भी यह फलित होता है कि लोकत्रय अर्थात् वहाँ के समग्र प्राणी उनके पूर्ण नियंत्रण में हैं। विष्णु भ्रूण-रक्षक भी हैं। गर्भस्थ बीज की रक्षा के लिए और सुन्दर बालक की उत्पत्ति के लिए विष्णु की प्रार्थना की जाती है। उनके पालक स्वरूप पर स्पष्ट बल देने के कारण ऋग्वेद में अहोरात्र अग्निरूप में भी उन्हें 'विष्णुर्गोपा परमं पाति..' अर्थात् सबके रक्षक-पालक कहा गया है। आचार्य सायण ऋग्वेद के अष्टम मण्डल के पच्चीसवें सूक्त के बारहवें मन्त्र की व्याख्या में भी विष्णु को स्पष्ट रूप से 'पालन से युक्त' मानते हैं।
इसलिए समग्र परिप्रेक्ष्य में ऋग्वेद में विष्णु को परम हितैषी कहा गया है।
सर्वोच्चता
सर्वाधिक मन्त्रों में वर्णित होने के बावजूद इन्द्र को 'सुकृत' और विष्णु को 'सुकृत्तरः' कहा गया है। 'सुकृत्तरः' का आचार्य सायण ने 'उत्तम फल प्रदान करने वालों में श्रेष्ठ' अर्थ किया है; श्रीपाद सातवलेकर जी ने 'उत्तम कर्म करने वालों में सर्वश्रेष्ठ' अर्थ किया है और महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने भी 'अतीव उत्तम कर्म वाला' अर्थ किया है। इन्द्र 'सुकृत' (उत्तम कर्म करने वाला) है तो विष्णु 'सुकृत्तरः' (उत्तम कर्म करने वालों में सर्वश्रेष्ठ) हैं। तात्पर्य स्पष्ट है कि ऋग्वेद में ही यह मान लिया गया है कि विष्णु सर्वोच्च हैं। इसी प्रकार इन्द्र के राजा होने के बावजूद विष्णु की सर्वोच्चता ऋग्वेद में ही इस बात से भी स्पष्ट हो जाती है कि उसमें विष्णु के लिए कहा गया है कि "वे सम्पूर्ण विश्व को अकेले धारण करते हैं" तथा इन्द्र के लिए कहा गया है कि वे राज्य (संचालन) करते हैं। तात्पर्य स्पष्ट है कि सृष्टि के सर्जक एवं पालक विष्णु ने संचालन हेतु इन्द्र को राजा बनाया है। इस सुसन्दर्भित परिप्रेक्ष्य में विष्णु की सर्वोच्चता से सम्बद्ध ब्राह्मण ग्रन्थों एवं बाद की पौराणिक मान्यताएँ भी स्वतः उद्भासित हो उठती हैं।
ब्राह्मणों में विष्णु
ब्राह्मण-युग में यज्ञ-संस्था का विपुल विकास हुआ और इसके साथ ही देवमंडली में विष्णु का महत्त्व भी पहले की अपेक्षा अधिकतर हो गया। ऐतरेय ब्राह्मण के आरम्भ में ही यज्ञ में स्थान देने के क्रम में अग्नि से आरम्भ कर विष्णु के स्थान को 'परम' कहा गया है। इनके मध्य अन्य देवताओं का स्थान है।
इस तरह स्पष्ट रूप से वैदिक संहिता ग्रन्थों में सर्वप्रमुख स्थान प्राप्त अग्नि की अपेक्षा विष्णु को अत्युच्च स्थान दिया गया है। वस्तुतः विष्णु को महत्तम तो ऋग्वेद में भी माना ही गया है, पर वर्णन की अल्पता के कारण वहाँ उनका स्थान गौण लगता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में स्पष्ट कथन के द्वारा उन्हें सर्वोच्च पद दिया गया है। यह श्रेष्ठता इस कथा से भी स्पष्ट होती है कि विष्णु ने अपने तीन पगों द्वारा असुरों से पृथ्वी, वेद तथा वाणी सब छीनकर इन्द्र को दे दी। वैदिक विष्णु के तीन पगों का यह ब्राह्मणों में कथात्मक रूपान्तरण है; और इसी के साथ विष्णु की सर्वश्रेष्ठता भी ब्राह्मण युग में ही स्पष्ट हो गयी। ऐतरेय ब्राह्मण स्पष्ट रूप से विष्णु को द्वारपाल की तरह देवताओं का सर्वथा संरक्षक मानता है।
दशावतार
भागवत महापुराण में 22 तथा 24 अवतारों की गणना के बावजूद अवतारों की बहुमान्य संख्या महाभारत वाली दश ही रही है। पद्मपुराण (उत्तरखण्ड-257.40,41), लिंगपुराण (2.48.31,32), वराहपुराण (4.2), मत्स्यपुराण (2.85.6,7) आदि अनेक पुराणों में समान रूप से दश अवतारों की बात ही बतायी गयी है। अग्निपुराण के वर्णन (अध्याय-2से16) में भी बिल्कुल वही क्रम है। इस सन्दर्भ का निम्नांकित श्लोक (नाममात्र के पाठ भेदों के साथ) प्रायः सर्वनिष्ठ है :-
मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः।
रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्किश्च ते दश॥
इस प्रकार विष्णु के दश अवतार ही बहुमान्यता प्राप्त हैं। इनके संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं :-
अन्य अवतार
दशावतार के अतिरिक्त अन्य चौदह अवतारों के नाम (भागवत महापुराण की दोनों सूचियों को मिलाकर) इस प्रकार हैं :-
विष्णु भजन हिंदी में | |
विष्णु स्त्रोतम | |
विष्णु व्रत कथा | |
विष्णु मंत्र |
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विष्णु चालीसा | |
विष्णु आरती |