बहुत समय पहले विदर्भ देश में उत्तंक नामक एक सदाचारी ब्राह्मण अपने परिवार के साथ रहता था। उसकी पत्नी एक पतिव्रता स्त्री थी और उसका नाम सुशीला था। उस ब्राह्मण की दो संताने थी, एक पुत्र तथा एक पुत्री। पुत्री के विवाहयोग्य होने पर ब्राह्मण ने उसका विवाह एक कुलशील वर के साथ कर दिया। किन्तु दुर्भाग्य से वह कुछ समय बाद ही विधवा हो गयी और उसका जीवन दुःख से भर गया। वैधत्व जीवन व्यतीत करने के लिए वो अपने माता पिता के पास ही कुटिया में रहने लगी। किन्तु उसका दुर्भाग्य अभी भी पूर्ण नहीं हुआ था, एक दिन वह रात्रि में सो रही थी की उसके सारे शरीर में कीड़े लग गए, उसका यह हाल देखकर माँ ने उसके पिता से पूछा की ऐसा कौन सा पाप किया है मेरी पुत्री ने जो इतने कष्ट झेल रही है। ब्राह्मण ने ध्यान लगाकर उसके पिछले जन्म के विषय में जाना और फिर बताया- पूर्व जन्म में भी यह कन्या ब्राह्मणी थी। इसने रजस्वला होते ही बर्तन छू दिए थे। इस जन्म में भी इसने लोगों की देखा-देखी ऋषि पंचमी का व्रत नहीं किया। इसलिए इसके शरीर में कीड़े पड़े हैं। धर्म-शास्त्रों की मान्यता है कि रजस्वला स्त्री पहले दिन चाण्डालिनी, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी तथा तीसरे दिन धोबिन के समान अपवित्र होती है। वह चौथे दिन स्नान करके शुद्ध होती है। यदि यह शुद्ध मन से अब भी ऋषि पंचमी का व्रत करें तो इसके सारे दुख दूर हो जाएंगे और अगले जन्म में अटल सौभाग्य प्राप्त करेगी। पिता की आज्ञा से पुत्री ने विधिपूर्वक ऋषि पंचमी का व्रत एवं पूजन किया। व्रत के प्रभाव से वह सारे दुखों से मुक्त हो गई। अगले जन्म में उसे अटल सौभाग्य सहित अक्षय सुखों का भोग मिला।