बारह महीनों की गणेश चैथ की कथाएँ
जन समुदाय में गणेश-पूजन का बड़ा महत्व है। कोई भी पूजा की जाये, सबसे पहले गणेशजी की पूजा की जाती है। धर्मात्मा लोग प्रत्येक मास की कृष्णपक्ष की चतुर्थी को व्रत रखते हैं। व्रत रखने वाले को व्रत के दिन की कहानी पढ़नी या सुननी होती है। यहाँ बारहों महीनों की गणेश व्रत की कथाएं संक्षेप में दी जा रही है।
चैत्र मास की कथा
ये कहानी तब की है, जब सतयुग चल रहा था। एक राजा था। राजा का नाम था। मकरध्वज। मकरध्वज बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति का राजा था और अपनी प्रजा का अपनी सन्तान की भांति पालन करता था। अतः उसके राज्य में प्रजा पूरी तरह सुखी ओर प्रसन्न थी। राजा पर मुनि यज्ञयवल्क्य का बड़ा स्नेह था। उनके ही आर्शीवाद से राजा को एक पुत्र की प्राप्ति हुई।
राज्य का स्वामी यद्यपि मकरध्वज था, परन्तु राजकाज उसका एक विश्वासपात्र मन्त्री चलाता था। मन्त्री का नाम धर्मपाल था। धर्मपाल के पांच पुत्र थे। सभी पुत्रों का विवाह हो चुका था। सबसे छोटे बेटे की बहू गणेशजी की भक्त थी और उनका पूजन किया करती थी। गणेश चैथ व्रत भी करती थी। सास को बहू की गणेश-भक्ति सुहाती नहीं थी। पता नहीं क्यों, पर कोई उसे शंका रहती थी कि यह बहू हम पर कोई जादू-टोना-टोटका करती है। सास ने बहू द्वारा गणेश-पूजा को बंद कर देने के लिए अनेक उपाय किये, पर कोई उपाय सफल नहीं हुआ। बहू की गणेश जी पर पूरी आस्था थी, अतः वह विश्वास के साथ उनकी पूजा करती रही।
गणेशजी जानते थे कि मेरी पूजा करने के कारण सास अपनी बहू को परेशान करती है, अतः उसे पाठ पढ़ाने ( मजा चखाने ) के लिए राजा के पुत्र को गायब करवा दिया। फिर क्या था, हाय तौबा मच गयी। राजा के बेटे को गायब करने का सन्देह सास पर प्रकट किया जाने लगा। सास की चिन्ता बढ़ने लगी। छोटी बहू ने सास के चरण पकड़कर कहा- मांजी आप गणेशजी का पूजन कीजिये, वे विध्नविनाशक हैं, आपका दुःख दूर कर देंगे।
सास ने बहू के साथ गणेश-पूजन किया। गणपति ने प्रसन्न होकर राज के पुत्र को लाकर दे दिया। सास, जो बहू पर अप्रसन्न-सी रहती थी, प्रसन्न रहने लगी और साथ ही गणेश-पूजन भी करने लगी।