बहुत पुरानी बात है। मथुरा के राजा कंस का एक रिश्तेदार था। उसका नाम था वाणासुर। वाणासुर की एक पुत्री थी, जिसका नाम उषा था। उषा रूप-सौन्दर्य की मूर्ति थी। वाणासुर ने उसके रहने के लिए अलग महल बनवा दिया था। वहाँ वह अपनी प्रिय सखी चित्रलेखा के साथ रहती थी।
एक दिन उषा ने सपने में एक सुंदर युवा राजकुमार को देखा। वह राजकुमार भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का बेटा अनिरूद्ध था। उसकी सुन्दरता को देखकर वह उसकी ओर आकृष्ट हो गयी। वह उससे प्रेमालिंग करना ही चाहती थी कि उसकी नींद खुल गयी। स्वप्न भंग हो गया, पर उसकी आकृति को वह भूल नही सकी और उससे मिलने का उत्कट इच्छा ने उसके मन में बेचैनी पैदा कर दी। उषा ने अपने मन की बात अपनी सखी चित्रलेखा को बतायी और कहा कि वह किसी प्रकार उस युवक को उसके पास ले आये। उसकी शक्ल -सूरत का नक्शा चित्रलेखा के सामने खींच दिया। चित्रलेखा समझ गयी कि राजकुमारी ने स्वप्न में अनिरूद्ध को देखा है। वह गयी और सोते हुए अनिरूद्ध को उठाकर उषा के पास ले आयी।
अनिरूद्ध को जब वहाँ सोते हुए नहीं पाया, तो उसके माँ-बाप तथा दादी रूक्मिणी आदि बहुत दुखी हुए। श्रीकृष्ण ने इस घटना का जिक्र अपनी राजसभा में ऋषि लोमश से किया। उन्होंने कहा- ऋषिवर! मेरा पौत्र अनिरूद्ध कहीं गुम हो गया है, इससे पूरा परिवार शोक में डूबा है।
लोमश ऋषि ने उन्हें उपाय बताया कि गणेश व्रत करें। श्रीकृष्ण ने उनके निर्देश का पालन किया और उन्हें पता चल गया कि अनिरूद्ध कहाँ है, उन्होंने वाणासुर के साथ युद्ध किया और विजय प्राप्त करके उषा और अनिरूद्ध को वाणासुर से माँगकर अपने साथ ले आये।