पुराने जमाने में रतिदेव नामक एक राजा था। उसके राज्य में एक ब्राह्यण रहता था, जिसका नाम था-धर्मकेतु।धर्मकेतु की दो पत्नियाँ थीं। एक का नाम था सुशीला और दूसरी का नाम चंचलता था। दोनों पत्नियों के विचारों एंव व्यवहार में बहुत अन्तर था। सुशीला धार्मिक वृत्ति की थी और व्रत-उपवास, पूजा -अर्चना करती रहती थी। इसके विपरीत चंचलता भोग-विलास में मस्त रहती थी। वह शरीर के श्रृंगार पर ही अधिक ध्यान देती रहती थी। किसी व्रत-उपवास या पूजा अर्चना से उसका कुछ लेना-देना नहीं था।
कुछ दिनों बाद धर्मकेतु की दोनों पत्नियों के सन्तान हुईं। सुशीला के पुत्री हुई और चंचलता ने एक पुत्र को जन्म दिया। चंचलता सुशीला से कहती रहती थी- सुशीला! तूने इतने व्रत उपवास करके अपने शरीर को सुखा लिया, फिर भी तेरे लड़की हुई। मैंने कोई व्रत-उववास या पूजा-अर्चना नहीं की, फिर भी पुत्र को जन्म दिया।
कुछ दिन तक तो सुशीला सुनती रही, पर जब अति हो गयी, तो उसे बड़ा दुःख हुआ। उसने गणेशजी की आराधना की। गणेशजी प्रसन्न हुए तो उनकी कृपा से सुशीला की पुत्री के मुँह से बहुमूल्य मोती-मूंगे निकलने लगे। एक रूपवान पुत्र भी उसने जन्मा।
सुशीला का ऐसा सौभाग्य जगा, तो चंचलता के मन में जलन होने लगी। उसने सुशीला की बेटी को कुएं में गिरा दिया, पर सुशीला पर तो गणेशजी की कृपा थी। उसकी बेटी का बाल भी बांका नहीं हुआ और वह सकुशल कुएं से निकाल ली गयी।