कालयवन एक बहुत बहादुर, साहसी और आसुरी प्रवृत्ति का योद्धा था। उसे शिवजी का आशीर्वाद प्राप्त था कि कोई उसे अस्त्र शस्त्र से नहीं मार पाएगा। इसलिए उसके मन में अभिमान जाग गया था और उसका अत्याचार भी बढ़ गया था। यही कारण था कि श्री कृष्ण उसे सीधे नहीं मार पाए, तो कैसे हुई उसकी मृत्यु आइये जानते हैं इस लेख के द्वारा –
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भगवान शिव ने दिया था वरदान :-
त्रिगत राज्य के कुलगुरु ऋषि शेशिरायण अत्यंत तपी एवं तेजस्वी थे। उनको अनेकों सिद्धियां प्राप्त थीं, और वे एक और सिद्धि की प्राप्ति के लिए कड़ा तप कर रहे थे और इसके लिए उन्हें बारह वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन करना था। एक दिन राजमहल में एक गोष्ठी आयोजित की गयी, जिसमे कुलगुरु ऋषि शेशिरायण भी पधारे। उन्हें वहां किसी राजा ने 'नपुंसक' कह दिया, जिससे की उनका क्रोध भड़क गया। उन्होंने सबके सामने ये प्रण किया कि वे एक ऐसे पुत्र की प्राप्ति करेंगे जिसे कोई भी न हरा पाए और वह अजेय होगा। और उन्होंने इसके लिए शिव की आराधना शुरू कर दी।
उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें एक अजेय पुत्र जिसे किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता था, प्राप्त करने का आशीर्वाद दिया। जिसके फलस्वरूप ऋषि एक अप्सरा की तरफ आकर्षित हो गए और उनके मिलन से एक शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न हुआ, उसका नाम कालयवन रखा गया। कालयवन शिवजी का कृपा प्रसाद था इसलिए उसमे क्रोध और शक्ति दोनों ही थी। किन्तु वह राक्षसी प्रवृत्ति का था।
पहुंचा श्री कृष्ण से युद्ध करने :-
कालयवन ने अपने जीवन में कई शक्तिशाली राजाओं से युद्ध किया था और उनके राज्यों पर विजयी प्राप्त की थी। किन्तु उसे कोई भी अपने समान शक्तिशाली नहीं मिला, इसलिए उसकी इच्छा थी की वह विश्व के सबसे शक्तिशाली योद्धा से युद्ध करे और अपनी शक्ति का परीक्षण कर सके।
एक दिन उसने नारद जी से सबसे शक्तिशाली योद्धा का नाम पूछा तो नारद जी ने कृष्ण जी का नाम बता दिया। बाद में जरासंध ने कालयवन को कृष्ण के विरुद्ध युद्ध करने का सुझाव दिया तो वह अपनी सेना लेकर मथुरा में आक्रमण करने चला गया। यादवों के पास सेना कम थी और कृष्णजी जानते थे की कालयवन को मारना संभव नहीं है इसलिए कृष्ण जी ने चालाकी दिखाते हुए उसे द्वन्द युद्ध के लिए ललकारा।
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भाग गए प्रभु रणभूमि से :-
कालयवन मान गया और अकेले निहत्था युद्ध करने आ गया। जैसे ही वह कृष्ण जी की तरफ बढ़ा, कृष्ण जी दूसरी दिशा की ओर भागने लगे। कालयवन यह देख कर हैरान रह गया, और उन्हें ललकारते हुए उनका पीछा करने लगा। श्री कृष्ण अपनी लीला दिखाते हुए कभी उसके पास तो कभी उससे दूर हो जाते। इसी प्रकार वह कृष्णजी का पीछा करते करते एक गुफा के पास पंहुचा। कृष्ण जी उस गुफा में प्रवेश कर चुके थे और इसलिए वह भी गुफा में प्रवेश कर गया।
राजा मुचुकुन्द :-
उस गुफा में मुचुकुन्द जी कई युगों से सोए हुए थे। राजा मुचुकंद एक महान राजा थे, उन्होंने देवों और असुरों के संग्राम में देवताओं की सहायता की थी और उन्हें विजयी दिलाई थी। इस से प्रसन्न हो देवराज ने उन्हें स्वर्ग में ही रहने की प्रार्थना की। किन्तु उन्होंने स्वर्ग का मोह न दिखाकर अपने परिवार के पास लौटने की इच्छा जताई। किन्तु इंद्र ने उन्हें बताया की पृथ्वी और देवलोक के समय में वर्षों का अंतर है। पृथ्वी के समय के हिसाब से आप युगों से युद्ध कर रहे हैं और आपका परिवार अब पृथ्वी पर शेष नहीं रहा। आप यहीं आनंद से रहें, किन्तु राजा ने कहा, भगवान विष्णु द्वापर युग में पृथ्वी में जन्म लेंगे मैं पृथ्वी पर उनकी प्रतीक्षा करना चाहता हूँ। यदि आप वरदान देना ही चाहते हैं तो मुझे निद्रा का दान दीजिये, तथा जो कोई मेरी निद्रा भंग करे मेरी दृष्टि से वह भस्म हो जाये। जब तक भगवान के दर्शन न हों मैं न जागूँ। देवताओं ने उन्हें यह वरदान दे दिया।
श्री कृष्ण की युक्ति :-
इसी वरदान के उपयोग से कालयवन को मारने के लिए तथा अपने भक्त मुचुकंद जी को दर्शन देने के लिए कृष्ण जी ने अपना पीताम्बर निकाल कर मुचुकंद जी को ओढ़ा दिया और एक कोने में जा छिपे। कालयवन जब गुफा में आया उसने पीतांबर देखा और राजा को कृष्ण समझ कर उन्हें लात मार कर उठाने लगा। जैसे ही राजा मुचुकंद की निद्रा भंग हुई और उन्होंने आँखे खोल कर कालयवन को देखा, तो उनकी क्रोधाग्नि से वह भस्म हो गया।