वल्लभाचार्य जन्म: संवत 1530 - मृत्यु: संवत 1588 भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधार स्तंभ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता माने जाते हैं। जिनका प्रादुर्भाव ईः सन् 1479, वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्री लक्ष्मणभट्ट जी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से काशी के समीप हुआ। उन्हें 'वैश्वानरावतार अग्नि का अवतार' कहा गया है। वे वेद शास्त्र में पारंगत थे। श्री रुद्रसंप्रदाय के श्री विल्वमंगलाचार्य जी द्वारा इन्हें 'अष्टादशाक्षर गोपाल मन्त्र' की दीक्षा दी गई। त्रिदंड सन्न्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्र तीर्थ से प्राप्त हुई। विवाह पंडित श्रीदेव भट्ट जी की कन्या महालक्ष्मी से हुआ, और यथासमय दो पुत्र हुए- श्री गोपीनाथ व विट्ठलनाथ।
महाप्रभु वल्ललाभाचार्य जी |
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जीवन परिचय
श्री वल्लभाचार्य जी विष्णुस्वामी संप्रदाय की परंपरा में एक स्वतंत्र भक्ति-पंथ के प्रतिष्ठाता, शुद्धाद्वैत दार्शनिक सिद्धांत के समर्थक प्रचारक और भगवत-अनुग्रह प्रधान एवं भक्ति-सेवा समन्वित 'पुष्टि मार्ग' के प्रवर्त्तक थे। वे जिस काल में उत्पन्न हुए थे, वह राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक सभी दृष्टियों से बड़े संकट का था
पूर्वज और माता-पिता
श्री वल्लभाचार्य जी के पूर्वज आंध्र राज्य में गोदावरी तटवर्ती कांकरवाड़ नामक स्थान के निवासी थे। वे भारद्धाज गोत्रीय तैलंग ब्राह्मण थे उनके पिता श्री लक्ष्मण भट्ट दीक्षित प्रकांड विद्वान और धार्मिक महापुरुष थे। उनका विवाह विद्यानगर (विजयनगर) के राजपुरोहित सुशर्मा की गुणवती कन्या इल्लम्मगारू के साथ हुआ था; जिससे रामकृष्ण नामक पुत्र और सरस्वती एवं सुभद्रा नाम की दो कन्याओं की उत्पत्ति हुई थी।
जन्म
श्री लक्ष्मण भट्ट अपने संगी-साथियों के साथ यात्रा के कष्टों को सहन करते हुए जब वर्तमान मध्य प्रदेश में रायपुर ज़िले के चंपारण्य नामक वन में होकर जा रहे थे, तब उनकी पत्नी को अकस्मात प्रसव-पीड़ा होने लगी। सांयकाल का समय था। सब लोग पास के चौड़ा नगर में रात्रि को विश्राम करना चाहते थे; किन्तु इल्लमा जी वहाँ तक पहुँचने में भी असमर्थ थीं। निदान लक्ष्मण भट्ट अपनी पत्नी सहित उस निर्जंन वन में रह गये और उनके साथी आगे बढ़ कर चौड़ा नगर में पहुँच गये। उसी रात्रि को इल्लम्मागारू ने उस निर्जन वन के एक विशाल शमी वृक्ष के नीचे अठमासे शिशु को जन्म दिया। बालक पैदा होते ही निष्चेष्ट और संज्ञाहीन सा ज्ञात हुआ, इसलिए इल्लम्मागारू ने अपने पति को सूचित किया कि मृत बालक उत्पन्न हुआ है। रात्रि के अंधकार में लक्ष्मण भट्ट भी शिशु की ठीक तरह से परीक्षा नहीं कर सके। उन्होंने दैवेच्छा पर संतोष मानते हुए बालक को वस्त्र में लपेट कर शमी वृक्ष के नीचे एक गड़ढे में रख दिया और उसे सूखे पत्तों से ढक दिया। तदुपरांत उसे वहीं छोड़ कर आप अपनी पत्नी सहित चौड़ा नगर में जाकर रात्रि में विश्राम करने लगे।
दूसरे दिन प्रात:काल आगत यात्रियों ने बतलाया कि काशी पर यवनों की चढ़ाई का संकट दूर हो गया। उस समाचार को सुन कर उनके कुछ साथी काशी वापिस जाने का विचार करने लगे और शेष दक्षिण की ओर जाने लगे। लक्ष्मण भट्ट काशी जाने वाले दल के साथ हो लिये। जब वे गत रात्रि के स्थान पर पहुंचे, तो वहाँ पर उन्होंने अपने पुत्र को जीवित अवस्था में पाया। ऐसा कहा जाता है उस गड़ढे के चहुँ ओर प्रज्जवलित अग्नि का एक मंडल सा बना हुआ था और उसके बीच में वह नवजात बालक खेल रहा था। उस अद्भुत दृश्य को देख कर दम्पति को बड़ा आश्चर्य और हर्ष हुआ। इल्लम्मा जी ने तत्काल शिशु को अपनी गोद में उठा लिया और स्नेह से स्तनपान कराया। उसी निर्जन वन में बालक के जातकर्म और नामकरण के संस्कार किये गये। बालक का नाम 'वल्लभ' रखा गया, जो बड़ा होने पर सुप्रसिद्ध महाप्रभु वल्लभाचार्य हुआ। उन्हें अग्निकुण्ड से उत्पन्न और भगवान की मुखाग्नि स्वरूप 'वैश्वानर का अवतार' माना जाता है।
आरंभिक जीवन
वल्लभाचार्य जी का आरंभिक जीवन काशी में व्यतीत हुआ था, जहाँ उनकी शिक्षा-दीक्षा तथा उनके अध्ययनादि की समुचित व्यवस्था की गई थी। उनके पिता श्री लक्ष्मण भट्ट ने उन्हें गोपाल मन्त्र की दीक्षा दी थी और श्री माधवेन्द्र पुरी के अतिरिक्त सर्वश्री विष्णुचित तिरूमल और गुरुनारायण दीक्षित के नाम भी मिलते हैं। वे आरंभ से ही अत्यंत कुशाग्र बुद्धि और अद्भुत प्रतिभाशाली थे। उन्होंने छोटी आयु में ही वेद, वेदांग, दर्शन, पुराण, काव्यादि में तथा विविध धार्मिक ग्रंथों में अभूतपूर्व निपुणता प्राप्त की थी। वे वैष्णव धर्म के अतिरिक्त जैन, बौद्ध, शैव, शाक्त, शांकर आदि धर्म-संप्रदायों के अद्वितीय विद्वान थे। उन्होंने अपने ज्ञान और पांडित्य के कारण काशी के विद्वत समाज में आदरणीय स्थान प्राप्त किया था।
कुटुम्ब-परिवार
उनका कुटुम्ब परिवार काफ़ी बड़ा और समृद्ध था, जिसके अधिकांश व्यक्ति दक्षिण के आंध्र प्रदेश में निवास करते थे। उनकी दो बहिनें और तीन भाई थे। बड़े भाई का नाम रामकृष्ण भट्ट था। वे माधवेन्द्र पुरी के शिष्य और दक्षिण के किसी मठ के अधिपति थे। उन्होंने तपस्या द्वारा बड़ी सिद्धि प्राप्त की थी। संवत 1568 में वे वल्लभाचार्य जी के साथ बदरीनाथ धाम की यात्रा को गये थे। अपने उत्तर जीवन में वे संन्यासी हो गये थे। उनकी सन्न्यासावस्था का नाम केशवपुरी था। वल्लभाचार्य जी के छोटे भाई रामचन्द्र और विश्वनाथ थे। रामचंद्र भट्ट बड़े विद्वान और अनेक शास्त्रों के ज्ञाता थे। उनके एक पितृव्य ने उन्हें गोद ले लिया था और वे अपने पालक पिता के साथ अयोध्या में निवास करते थे। उन्होंने अनेक ग्रंथो की रचना की थी, जिनमें 'श्रृंगार रोमावली शतक' (रचना-काल संवत 1574), 'कृपा-कुतूहल', 'गोपाल लीला' महाकाव्य और 'श्रृंगार वेदान्त' के नाम मिलते हैं।
वल्लभाचार्य जी का अध्ययन सं. 1545 में समाप्त हो गया था। तब उनके माता-पिता उन्हें लेकर तीर्थ यात्रा को चले गये थे। वे काशी से चल कर विविध तीर्थों की यात्रा करते हुए जगदीश पुरी गये और वहाँ से दक्षिण चले गये। दक्षिण के श्री वेंकटेश्वर बाला जी में संवत 1546 की चैत्र कृष्ण 9 को उनका देहावसान हुआ था। उस समय वल्लभाचार्य जी की आयु केवल 11-12 वर्ष की थी, किन्तु तब तक वे प्रकांड विद्वान और अद्वितीय धर्म-वेत्ता के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। उन्होंने काशी और जगदीश पुरी में अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की थी। वल्लभाचार्य जी के दो पुत्र हुए थे। बड़े पुत्र गोपीनाथ जी का जन्म संवत 1568 की आश्विन कृष्ण द्वादशी को अड़ैल में और छोटे पुत्र विट्ठलनाथ जी का जन्म संवत 1572 की पौष कृष्ण 9 को चरणाट में हुआ था। दोनों पुत्र अपने पिता के समान विद्वान और धर्मनिष्ठ थे।
अद्वैतवाद
अद्वैत वेदान्त की प्रतिक्रियास्वरूप ही वेदान्त के अन्य सम्प्रदायों का प्रादुर्भाव हुआ। रामानुज, निम्बार्क, मध्व और वल्लभ ने ज्ञान के स्थान पर भक्ति को अधिक प्रश्रय देकर वेदान्त को जनसामान्य की पहुँच के योग्य बनाने का प्रयास किया। उपनिषद, गीता और ब्रह्मसूत्र के विश्लेषण पर ही शंकर के अद्वैतवाद का भवन खड़ा हुआ था। इसी कारण अन्य आचार्यों ने भी प्रस्थानत्रयी के साथ साथ भागवत को भी अपने मत का आधार बनाया। यद्यपि वल्लभाचार्य ने वेद, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र तथा श्रीमद्भागवत की व्याख्याओं के माध्यम से अपने मत का उपस्थान किया, किन्तु उनका यह भी विचार रहा है कि उपर्युक्त स्रोत ग्रन्थों में से उत्तरोत्तर का प्रामाण्य अधिक है। इस प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि शुद्धाद्वैत के संदर्भ में वल्लभाचार्य द्वारा भागवत पर रचित सुबोधिनी टीका का महत्त्व बहुत अधिक है। दर्शन में भक्ति का पुट श्रीमद्भागवत से अधिक शायद ही किसी अन्य ग्रन्थ में उपलब्ध होता हो। अत: वल्लभाचार्य के लिए यह स्वाभाविक ही था कि वह श्रीमद्भागवत को अधिक महत्त्व देते।
वल्लभाचार्य के प्रमुख ग्रंथ
ब्रह्मसूत्र का 'अणु भाष्य' और वृहद भाष्य'
भागवत की 'सुबोधिनी' टीका
भागवत तत्वदीप निबंध
पूर्व मीमांसा भाष्य
गायत्री भाष्य
पत्रावलंवन
पुरुषोत्तम सहस्त्रनाम
दशमस्कंध अनुक्रमणिका
त्रिविध नामावली
शिक्षा श्लोक
11 से 26 षोडस ग्रंथ, (1.यमुनाष्टक,2.बाल बोध,3.सिद्धांत मुक्तावली,4.पुष्टि प्रवाह मर्यादा भेद, 5.सिद्धान्त 6.नवरत्न, 7.अंत:करण प्रबोध, 8. विवेकधैयश्रिय, 9.कृष्णाश्रय, 10.चतुश्लोकी, 11.भक्तिवर्धिनी, 12.जलभेद, 13.पंचपद्य, 14.संन्सास निर्णय, 15.निरोध लक्षण 16.सेवाफल)
भगवत्पीठिका
न्यायादेश
सेवा फल विवरण
प्रेमामृत तथा
विविध अष्टक (1.मधुराष्टक, 2.परिवृढ़ाष्टक, 3. नंदकुमार अष्टक, 4.श्री कृष्णाष्टक, 5. गोपीजनबल्लभाष्टक आदि।)
अणुभाष्य
ब्रह्मसूत्र पर वल्लभाचार्य ने अणुभाष्य लिखा। अणु शब्द का प्रयोग आचार्य ने क्यों किया। ऐसी मान्यता है कि वल्लभाचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर दो भाष्य लिखे थे, एक बृहदभाष्य (या भाष्य) और दूसरा अणु (छोटा) भाष्य। ऐसा प्रतीत होता है कि बृहदभाष्य अब उपलब्ध नहीं होता, किन्तु अणुभाष्य उसी का लघु संस्करण है। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि श्रीमद्भागवत पर भी वल्लभाचार्य ने एक बृहद टीका (सुबोधिनी) लिखी और एक लघु टीका (सूक्ष्म टीका, जो कि अब उपलब्ध नहीं होती)। एक ही ग्रन्थ की टीकाओं के एकाधिक संस्करण अन्य आचार्यों ने भी लिखे हैं। उदाहरणतया मध्वाचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर ही चार टीकाएं लिखी थीं
भाष्य
अणुभाष्य (अथवा अनुव्याख्यान)
अनुव्याख्यान विवरण
अणुव्याख्यान।
ये चारों ही संस्करण उपलब्ध हैं। अत: मध्वाचार्य का अनुकरण करके वल्लभाचार्य ने भी ब्रह्मसूत्र के भाष्य के दो संस्करण (एक बढ़ा और एक सूक्ष्म) लिखे हों तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। वल्लभाचार्य ने दार्शनिक समस्याओं के समाधान में अनुमान को अनुपयुक्त मानकर शब्द प्रमाण को वरीयता दी है। उनके मतानुसार ब्रह्म माया से अलिपत होने के कारण नितान्त शुद्ध है। वह सत्, चित्, आनन्द रस से युक्त है। ब्रह्म अपनी संधिनी शक्ति के सत् का, संचित् शक्ति द्वारा चित् का, और ह्लादिनी शक्ति द्वारा आनन्द का आवर्भाव करता है। वह पूर्ण पुरुषोत्तम शाश्वत तथा सर्वव्यापक होने के साथ साथ कर्ता और भोक्ता दोनों है। जगत् को वह अपने में से आविर्भूत करता है। और इस प्रकार वह जगत् का निमित्तकरण तथा उपादान कारण भी है। वह अविकृत परिणामवाद के अनुसार अपने को जगत् के रूप में आविर्भूत करता है, अत: उसके मूल स्वरूप में कोई परिवर्तन या विकार नहीं आता है।