छह साल की निविदा उम्र में ही महाराज जी पहले से जानते थे की उनकी नियति आध्यात्मिकता में थी, और आठ साल की उम्र में उन्होंने अपने गुरु की खोज की। वह बताते हैं, कि उनके पिता एक साधक थे और उन्होंने अपने दिमाग को शुरु से ही संयोजित किया था कि उनका एक बेटा सेना में जायेगा, दूसरा गृहस्थ होगा और तीसरे ने खुद को भगवान की सेवा में समर्पित किया होगा। जब उन्होंने यह सुना तो वह केवल छह साल के थे। यह सुनकर खुशी से कूद गए और उन्होंने कहा कि वे धर्म की राह पर ही चलेंगे।
महामंडलेश्वर स्वामी चिदंबरनंद |
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जीवन चरित्र
आठ वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पिता से भगवा पहनने की अनुमति मांगी। उनके पिता ने उनका उत्साह देखकर सहमति दे दी। कुछ समय पश्चात् वह अपने पिता के साथ लखनऊ के पास एक तीर्थ स्थान नैमिसर्न्या में, हरिहरनंद सरस्वती महाराज के आश्रम में गए। वहां प्रवचन के बीच गुरु जी ने अपने भक्तों से दान माँगा। उसके भक्तों ने उत्सुकता से भोजन, धन, भौतिक वस्तुओं और यहां तक कि जमीन के दान का भी प्रस्ताव रखा, किन्तु गुरु जी को वह सब नहीं चाहिए था। उन्हें तलाश थी एक शिष्य की। उनके पिता ने गुरु जी के मन का भाव समझकर अपने बेटे को उन्हें सौपने का वचन दिया।
महाराज जी बताते हैं की- "जब मैंने अपने गुरु का चेहरा देखा और महसूस किया कि मेरा भाग्य वहां था, तो मैं रोमांचित हो गया।" दो साल बाद, 10 वर्ष की उम्र में, वह इसमें शामिल हो गए। स्वामीजी बताते हैं की यह उनके जीवन का सबसे ख़ुशी का दिन था। इसके बाद उन्होंने आश्रम में 5 साल बिताये और भगवद गीता, उपनिषद और अन्य शास्त्रीय ग्रंथों की शिक्षाओं को ग्रहण किया और वेदांत की एक दृढ़ नींव हासिल की। उसके बाद उन्होंने आश्रम छोड़ दिया और लगभग 16 वर्ष की उम्र में स्वयं का आश्रम बनाया।
उनके कठोर तप और गहन साधना के माध्यम से उनके जीवन की एक शानदार भक्तिमय साधना शुरू हुई।